
लग्न - मेष
मेष लग्न- इसका स्वामी उग्र है,ऊर्जावान है, मंगल है, देवताओं का सेनापति है। मेष का अर्थ है मेढ़ा और मेढ़ा अग्निदेव का वाहन है।
अग्नि स्वयं में उग्र है , ऊर्जावान है और मेढ़े का स्वभाव भी उग्र, लड़ाकू व आक्रामक होता है। इसीलिए अग्नि का वाहन मेढ़ा माना गया है और मेष स्वयं भी, अग्नि तत्त्व राशि है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मेष लग्न का जातक उग्र,ऊर्जावान, उत्साही, सक्रिय, शरीरवादी तथा आक्रामक और क्रोधी स्वभाव का होगा।
आप मेष राशि के हैं तो उन्नति व आगे रहने की प्रवृत्ति ,आपमें होगी ही (क्योंकि अग्नि का स्वभाव ही ऊपर उठना है। भले ही अल्प हो, बुझने वाली हो, किन्तु अन्तिम समय तक ऊपर ही उठने की चेष्टा करती है)। और एहि प्रवृत्ति आपमें देखने को मिलती है।
मेष राशि / लग्न के लोग प्रायः तरक्की के शिखर पर पहुंचने वाले तथा अन्यों से आगे रहने वाले होते हैं। आप देख लीजिये सम्राट अशोक, अकबर, अलेक्सेंडर ,अजातशत्रु , अज , यह सभी महान चक्रवर्ती सम्राट मेष राशि के हैं
अब हम मेष लग्न के जातक की बात करेंगे। ऐसे जातकों की गर्दन कुछ लम्बी, चेहरा कनपटियों के पास से चौड़ा, आकर्षक, किन्तु प्रायः त्रिकोणाकार,कद मध्यम, माथे या चेहरे पर प्रायः चोट का निशान होता है। जातक मिष्ठान्नप्रेमी,
इच्छा पूर्ति के लिए कुछ भी कर डालने वाले तथा परिश्रमी होते हैं। ऐसे जातक कार्य को बहुत उत्साह से आरम्भ करते हैं, किन्तु थोड़ा समय बीतने के साथ इनका उत्साह मंद पड़ जाता है। फिर भी ये ध्येयपूर्ति होने तक शांत नहीं बैठते। ये लोग
यद्यपि बहुत ऊर्जावान होते हैं किन्तु इनके पास होश कम और जोश अधिक होता है। जीवन में सफलता के लिए इनको किसी सुयोग्य व्यक्ति का परामर्श बहुत जरूरी होता है।
मेष राशि के जातक दिल के साफ होते हैं। इनके खिलाफ जो कोई भी षड़यंत्र रचता है , इन्हें बहुत देर में समझ आती है।
ये साफ़ बात करने वाले होते हैं। इसी लिए , लोग इनसे जल्दी रुष्ट हो जाते हैं। इनके दिल में जो होता है, वही
इनकी जबान पर रहता है। खाली समय में ये चिड़चिड़े व क्रोधी हो जाते हैं। ये स्वभाव के चंचल व निडर होते हैं।
इनका रंग लालिमायुक्त गोरा व तांबई होता है। ये एकांत स्वभाव वाले,आक्रामक प्रवृत्ति वाले तथा अच्छी शिक्षा वाले किन्तु अधीर होते हैं। प्रायः देखा जाता है कि एक कार्य को समाप्त करने से पहले ही ये दूसरा काम शुरू कर देते हैं।
ये स्वभाव से अस्थिर, हठी व कठोर होते हैं।
(यदि लग्न अशुभ प्रभाव में हो तो) एहि दबंग व तेजस्वी स्वभाव के ये लोग कभी-कभी अपराधी व हिंसक मानसिकता वाले या आतंकवादी भी हो जाते हैं । मेष लग्न के जातक वहमी ,शंकालु, अड़ियल , शरीर से पतला किन्तु व्यक्तित्व व प्रवृत्ति, इनकी ‘डॉमिनेट’ करने वाली होती है।
यदि मंगल शुभ प्रभाव में हो तो ये लोग अच्छे सर्जन होते हैं , पुलिस में , सेना में , साहसिक या प्रशासनिक कार्य करने वाले होते हैं।
सिंह, तुला व धनु लग्न वाले इनके अच्छे मित्र होते हैं ।
लग्न दूषित हो तो इन्हें बुखार, मस्तिष्क ज्वर या मस्तिष्क सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।
यदि मेष लग्न में लग्नेश मंगल लग्न में ही बैठा हो तो जातकों का रंग लाल होता है।
इनको खाने में मिष्ठान्नप्रियता तो रहती है, परन्तु पित्त प्रकृति विशेष होने के कारन जातक ठण्डी वस्तुएं या कोल्ड ड्रिंक्स का अधिक सेवन करते हैं।
मेष लग्न के जातक शीघ्र रूठने व शीघ्र मान जाने वाले होते हैं।
लाल वस्त्र पहनने में रुचि रहती है।
ये पराक्रमी, वीर तथा रजोगुणी होते हैं।
ये बहुत ही ज्यादा न्यायप्रिय होते हैं। अन्याय इनसे बर्दास्त नहीं होता है।
ये सक्रिय रूप से शारीरिक विरोध भी करते हैं (और यदि सूर्य भी प्रथमस्थ हो तो सूर्य शिक्षा में सहयोगी रहता है किन्तु क्रोध बढ़ा देता है, क्योकि मेष लग्न में सूर्य उच्चा के होते हैं )।
और यदि मंगल व गुरु दोनों शुभ स्थानों में स्थित हों तो जातक I.A.S. ऑफीसर, I.P.S या अति उच्च पद पर या अपने विषय में एथॉरिटी बनते हैं।
यदि सर्जन ही बनें तो बहुत नामी, निपुण व उच्च कोटी के होंगे। सूर्य की POSTING भी अच्छी हो तो उच्च सरकारी पद निश्चित ही प्राप्त करते हैं।
मेष लग्न में लग्नस्थ मंगल बत्तीस दांतों वाला, सत्यभाषी तथा शाप या दुर्वचन को फलित कर देने के असर से सम्पन्न होता है। ऐसे जातक उदररोगी होते हैं। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। जातक मानसिक तौर पर दुखी रहते हैं।
किन्तु शरीर से हट्टे-कट्टे होते हैं
(मंगल के साथ बुध भी हो तो जातक ब्लडप्रेशर के रोगी या रक्तविकार वाले हो सकते हैं तथा वह झूठ बोलने वाले व चोरी करने वाले भी हो सकते हैं)। ऐसे जातक अपने भाइयों की विशेष सहायता करने वाले
या उनके पालक होते हैं। इन्हें भूख बहुत लगती है। यह अधिक खाते हैं परन्तु जल्दी ही पचा भी लेते हैं। आयु के 8वें वर्ष में इनको संकट रहता है। ऐसे जातकों के प्राय: भाई जरूर होते हैं (अकेली संतान नहीं होते)।
यदि लग्न में मंगल के साथ शनि या गुरु हो तो जातक के जोश में होश का समावेश हो जाता है। किन्तु मंगल के साथ राहू हो तो गृहस्थ सुख व पत्नी के लिए संतान व भाग्य के लिए अवरोध हो जाता है।
मंगल के साथ केतु लग्न में हो तो जातक को बार-बार चोट लगती है। जीवन झंझटों में घिरा रहता है। मानसिक अन्तर्द्वन्द्व बना रहता है।
सन्तानोत्पत्ति कठिन हो जाती है। विधुर होना सम्भव होता है। गृहस्थ असफल रहता है। इस लग्न वाले जातकों को सूर्य व गुरु विशेष शुभ फल देने वाले होते हैं।
मेष लग्न वालों में कोई ग्रह केन्द्राधिपति दोष में नहीं होता, किन्तु कोई ग्रह योगकारक भी नहीं होता।
मेष लग्न में यदि सूर्य पंचमस्थ हो तो योगकारक माना जाता है। अथवा सूर्य की युति केन्द्र (1,4,7,10 भाव) के स्वामियों में से किसी से हो जाए तो भी योगकारक माना जाएगा, क्योंकि यह ‘राजयोग’ बनाएगा (मेष लग्न में सूर्य की सर्वोत्तम युति शनि के साथ होती है)।
मेष लग्न में चन्द्रमा क्योंकि चतुर्थेश होता है। अतः वह केन्द्र से बाहर बैठे और कृष्ण पक्ष का (क्रूर) हो तो शुभ हो जाता है। शुक्र मेष लग्न में एक प्रकार से केन्द्राधिपति दोष में जाना जाएगा क्योंकि इसकी दूसरी राशि न्यूट्रल भाव (मारकेश)
में चली जाती है।
मेष लग्न के जातक वैज्ञानिक/तार्किक सोच वाले होते हैं। वे हर बात का प्रूफ/तर्क (LOGIC) मांगते हैं। महत्वाकांक्षी बहुत होते हैं। आदेश मानने/शासित होने की बजाय वे आदेश देना/शासन करना पसंद करते हैं। गुस्सा जल्दी आता है।
ऐसे जातक या तो किसी काम को करते नहीं, करते हैं तो EXTREEM तक जाते हैं। यद्यपि भावुक होते हैं। सौंदर्य व कलाप्रेमी भी होते हैं, परन्तु सोच PRACTICAL और विचारधारा स्वतंत्र होती है। ऐसे जातक पैनी-दृष्टि, लम्बे किन्तु तिकोने चेहरे, लम्बी गर्दन, चौड़ा माथा, ठोड़ी संकीर्ण, रंग ललाई लिए हुए, बाल घुंघराले व भूरे, दांत अच्छे, आंखें गोल आदि शारीरिक विशेषताओं वाले औसत कद-काठी
के परन्तु गठे हुए शरीर वाले होते हैं। यदि लग्न पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि हो या लग्नेश पाप पीड़ित हो तो इनको मानसिक असंतुलन से ग्रस्त होने की तीव्र सम्भावना रहती है।
मेष लग्न में यदि लग्नेश छठे घर में हो तो ऐसे जातकों के प्रायः सेना, पुलिस या MEDICAL (सर्जरी विशेषकर) में जाने की तीव्र सम्भावना होती है। यदि ये सर्जन न होकर फिजीशियन होंगे तो किसी न किसी अंग के विशेषज्ञ होंगे यद्यपि
ऐसे जातक ऋणी भी होते हैं। परन्तु लग्नेश की दशा या मध्यायु में सब कर्ज़ उतार देते हैं।
रोग ज्योतिष के अनुसार मेष लग्न वालों को मांस या मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग पीड़ित कर सकते हैं। दिमाग तथा अंडकोषों के रोग और रक्तपित्त के रोग सम्भावित होते हैं। यदि मंगल नीच का हो तो छाती के रोग भी देता है।
विशेष (रोग) – मेष लग्न में षष्ठेश यदि लग्नस्थ हो और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो ऐसे जातक आंखों से जलस्राव के रोग के शिकार होकर दृष्टिमंदता से पीड़ित होते हैं या अंधे हो जाते हैं।
मेष लग्न में पापग्रह हों और लग्नेश निर्बल हो तो ऐसे जातक सदैव रोगों से पीड़ित ही रहते हैं।
मेष लग्न में लग्नेश यदि शनि और बुध के साथ चौथे या बारहवें भाव में युति करे तो कुष्ठ रोग संभव होता है।
मेष लग्न हो, शनि, मंगल व चन्द्र लग्नस्थ हों, गुरु षष्ठस्थ हो तो भी कुष्ठ रोग सम्भावित होता है। > मेष लग्न में चन्द्र, शनि व लग्नेश तीनों की युति दुःस्थानों में हो तो ऐसे जातकों की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है।
> मेष लग्न में शनि लग्नस्थ, चन्द्रमा चतुर्थस्थ, सूर्य एवं शुक्र द्वादशस्थ हों तो जातक 24वें वर्ष में पोलियो या रक्तपित्त के दोषों से रुग्ण होते हैं।
> मेष लग्न में वृश्चिक का सूर्य, पाप मध्य तथा पापदृष्ट हो तो जातकों को हार्टअटैक होता है ।
> मेष लग्न में राहू चौथे भाव में बैठकर अन्य पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो भी हार्टअटैक होता है।
> मेष लग्न में जन्मकुंडली कालपुरुष की कुंडली के समान होती है (प्रथमभाव में प्रथम तथा क्रमश: द्वादश भाव में बारहवीं राशि ही होती है)। यह मेष लग्न की विशेषता है। शुक्र 2 व 7 भावों का स्वामी रहता है। ये धन व पत्नी के स्थान
हैं किन्तु मारकेश भी हैं। अतः शुक्र इन्हें शुभ नहीं रहता। बुध 3 व 6 भावों का स्वामी मेष लग्न में होता है। तीन साहस का भाव है और छठा रोगों का। अतः यह शुभाशुभ (अशुभ अधिक) रहता है। चन्द्रमा चतुर्थ भाव का स्वामी होता है और
सूर्य पंचम का। चौथा भाव सुख व पांचवां संतान व विद्या का है। अतः चन्द्र इन्हें सम व सूर्य शुभ रहता है। इनका लग्नेश मंगल (1,8) ही अष्टमेश होने से इन्हें शुभाशुभ रहता है। गुरु भाग्येश के साथ व्ययेश (9,12) होने से शुभाशुभ (शुभ
अधिक) होता है और यही स्थिति शनि (10,11) की भी होती है। अतः कोई ग्रह इन्हें निर्विवाद रूप से पूर्ण शुभ एवं योगकारक नहीं होता। केन्द्राधिपति दोष में भी नहीं होता।
लग्न - वृषभ
वृष लग्न (लग्नेश शुक्र)
वृष लग्न तब होगा जब लग्न में वृष राशि हो। वृष राशि का स्वामी क्योंकि शुक्र है। अतः वृष लग्न का स्वामी/लग्नेश भी शुक्र ही होगा। इसलिए यहां वृष राशि के स्वामी (शुक्र) और वृष (सांड़) जो इस राशि के प्रतीक हैं- दोनों की विशेषताओं का ध्यान रखना चाहिए। शुक्र जहां वैभव, ऐश्वर्य और काम (SEX)का कारक है, वहीं सांड़ भी पौरुष (कामशक्ति), सामर्थ्य तथा मस्ती (लापरवाह/अपनी ही मौज में रहने वाला) का प्रतीक है। क्रुद्ध अवस्था में आक्रामक,विकट तथा उन्मत्त/क्रोधांध हो जाना किन्तु सम/शान्तावस्था में विरक्त तथा अपनी
ही धुन या मस्ती में खोए रहना सांड़ का स्वभाव है। इसीलिए यह महादेव शिव का वाहन माना गया है, जो सदा योग/ध्यानमग्न रहते हैं परन्तु क्रुद्ध होने पर जब उनका तीसरा नेत्र खुलता है तब प्रलय आ जाती है। उनका क्रोध किसी को भी सहनीय नहीं होता है। अतः यह सहज ही कहा जा सकता है कि वृष लग्न के जातकों में इन गुणों का पाया जाना स्वाभाविक है।
मूडी होते हैं। अगर कहीं ऐसे जातक के लग्न में सूर्य विद्यमान हो तब तो ये अपनी बात पर अड़ जाने वाले हो जाते हैं। परस्पर वार्तालाप में भी अपनी बात/मत को नीचा नहीं पड़ने देते। अनावश्यक बहस कर येन-केन-प्रकारेण अपनी बात मनवा लेने का प्रयास करते हैं। अपनी बात मानने व तारीफ करने वालों से ये बहुत प्रसन्न रहते हैं। किन्तु आलोचना करने वालों से शीघ्र ही रुष्ट हो जाते हैं। ऐसे जातक किसी को पसंद करें तो वैश्या के समान उससे बहुत घनिष्ट हो जाते हैं। नापसंद करें तो छूत की बीमारी की तरह उससे कन्नी काटने लगते हैं।
दरअसल, शिव (महादेव) योगी ही नहीं, भोले भंडारी ही नहीं, पशुपति भी कहे जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वे जानवरों के स्वामी या भगवान हैं। इसका अर्थ यह है कि वे पशुओं के स्वामी हैं। पशु का अर्थ है तमोगुणी। पशु का अर्थ है
अहंकारी। पशु का अर्थ है उच्छृंखल व मनमौजी। पशु का अर्थ है शक्ति या सत्ता के मद में डूबा, जड़त्व बुद्धि को प्राप्त हो गया, प्रबल अहं का मारा हुआ जीव ।
पशुओं में सर्वाधिक मनमौजी (अनियंत्रित/मूडी/उच्छृंखल/
उनके स्वामी होने से ‘पशुपति’ कहे गए हैं। यह इसका प्रमाण है कि वृष (सांड़) लग्न वाले जातकों में अन्य विशेषताओं के साथ अहंकार भी प्रबल रूप में रहता है और अपने इस अहं/दर्प का टूटना वे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करते। अगर
गलती से ही सही उन्होंने दिन को रात कह दिया है तो वे चाहते हैं कि सामने वाला भी दिन को रात ही माने। न माने तो वे उसे मनवाने की जी तोड़ कोशिश करते हैं।
फिर भी न माने तो उसके विषय में ये जातक अपनी राय बदल लेते हैं और उससे रुष्ट हो जाते हैं। ऐसे जातकों को इनकी भावनाओं के विपरीत छोड़ दिया जाए तो ये रुष्ट होकर सारा बना-बनाया काम बिगाड़ देते हैं, उस बच्चे की भांति जिसे न
खिलाया जाए तो वह सबका खेल बिगाड़ देता है ।
पाराशरी ज्योतिष, लाल किताब तथा मेरे गुरुओं, आचार्यों एवं ज्योतिर्विदों के अनुसार वृष लग्न वाले जातक के चारित्रिक गुणावगुणों तथा स्वभाव एवं प्रकृति का विश्लेषण इस प्रकार है-
वृष लग्न के जातक की बात को ध्यान से न सुनो, या उपेक्षा करो तो वे आक्रामक/क्रुद्ध हो जाते हैं। अपनी उपेक्षा इनको बर्दाश्त नहीं होती। यद्यपि क्रोध पीने की क्षमता वृष लग्न वालों में मेष लग्न वालों की अपेक्षा बहुत अधिक होती है । परन्तु अभिमान की मात्रा भी इनमें अधिक होती है। अपने आइडियाज़, अपने सिद्धांत ही इनको प्रिय होते हैं। मनोरंजन के शौकीन ऐसे जातक मनोरंजन या गप्पों में लग जाएं तो समय का इन्हें बिल्कुल ध्यान नहीं रहता। ऐसे जातकों के होंठ
प्रायः मोटे व शरीर वर्गाकार और छोटा होता है। आम आदमी की अपेक्षा ये मोटे होते हैं। चेहरा सुन्दर, नेत्र व मस्तक बड़े, छाती चौड़ी (विशेष कर कंधे)। ये घोर नहीं रहते परिश्रमी/कर्मठ और बहुत सहनशील भी होते हैं। प्राय: बच्चों से ये
खुश (उनसे इन्हें शिकायत बनी रहती है)। भावुक होते हैं परन्तु जिद्दी भी। लग्न पर दुष्प्रभाव हो तो 50 वर्षों के बाद इन्हें प्रायः नाड़ी तंत्र की दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं।
शनि वृष लग्न वालों को योगकारक होता है। अपनी दशा, अन्तर्दशा में शनि इन्हें अच्छा फल देता है। किन्तु वृष राशि क्योंकि पृथ्वी तत्त्व राशि है। अतः बावजूद कर्मठ होने के ये जातक मूड़ न हो तो आलसी, प्रमादी व काम टालने वाले बने
रहते हैं। परन्तु जब मूड आ गया तो दिन-रात, आंधी-बारिश कुछ नहीं देखते। यानी ये मूडी अथवा सांड़ की तरह स्वेच्छाचारी/मनमौजी होते हैं।
स्थूल शरीर, काले बाल, आंखों में चमक व चौड़े कंधों वाले ये जातक सामान्यतः सज्जन व शांत प्रकृति के होते हैं। किन्तु इनके साथ छेड़खानी की जाए तो ये पूरी शक्ति से अड़ जाते हैं। ये वासना प्रधान होते हैं। अपने अपमान/विरोध/ उपेक्षा
को ये कभी नहीं भूलते। इनकी स्मरणशक्ति तीव्र होती है तथा अपनी बातों को गुप्त रखने में ये माहिर होते हैं। ये ईर्ष्यालु होते हैं। मित्रों व सम्बन्धियों की सहायता से इनको प्रायः सफलता प्राप्त होती है।
वृष लग्न वाले जातक स्वयं के कारोबार में अधिक सफल होते हैं। कन्या व वृश्चिक लग्न वाले जातकों से मित्रता इन्हें शुभ रहती है। यदि लग्न पाप पीड़ित हो तो इनको गले के रोग सम्भावित होते हैं। वृष लग्न के जातक अपनी आर्थिक
सफलताओं से कभी संतुष्ट नहीं होते। इनके लिए धन मात्र जरूरतें पूरी करने का माध्यम नहीं अपितु जीवन का आधार होता है। आजीवन ये धनोपार्जन के ही प्रयास को जीवन का अंतिम लक्ष्य मानकर उसमें रमे रहते हैं। किन्तु फिर भी
धर्मकर्म/कर्मकांड/जप उपासना आदि के कार्यों में इनकी रुचि होती है। ये न केवल आस्तिक होते हैं बल्कि अध्यात्म व संसार को साथ लेकर चलने की कोशिश करने वाले होते हैं। यदि इनको ज्ञान हो जाए और ये धन की भूख पर अंकुश लगाकर आध्यात्मिक क्षेत्र में ही जुट जाएं तो ज्ञान के शिखर पर पहुंचते या आध्यात्मिक उन्नति भी करते हैं। परन्तु ऐसे लाखों में कोई एक ही होते हैं। अन्यथा अधिकांश वृष लग्न के जातक खाने-पीने और भोगने को ही जीवन समझकर श्रेष्ठतम ज्ञान/ अध्यात्म से वंचित रह जाते हैं। कोल्हू के बैल की भांति धनोपार्जन में जुटे रहते हैं। शुक्र बृहस्पति से शुभ योग करता हो अथवा बृहस्पति उच्च राशि का हो तो वृष लग्न के जातक भी कृष्ण व बुद्ध की भांति आध्यात्मिक उन्नति कर पाते।
अन्यथा इनकी उपासना कोरा कर्मकांड/आडम्बर बनकर रह जाती है।
चुनौती सामने हो या कार्य रुचि के अनुकूल हो तो वृष लग्न के जातकों का उत्साह व शक्ति दोनों ही बढ़ जाते हैं। अन्यथा इनकी सुस्ती व आलस्य भी देखते ही बनते हैं। प्रायः ये जोश दिलाए जाने पर फूंक पर चढ़ जाने वाले व चापलूसी
पसंद करने वाले होते हैं। लग्न पर शुभ प्रभाव हो तो ऐसे जातक गायक भी हो सकते हैं। कभी-कभी वृष लग्न वालों की गर्दन भी मोटी पाई गई है।
वृष लग्न के जातक अतिथिसेवी/अच्छे मेहमाननवाज होते हैं। घर आए मेहमानों की खातिरदारी से इन्हें विशेष खुशी मिलती है। किन्तु ये परिवर्तन से बहुत भय खाते हैं। प्रायः ये एक ढर्रे पर जीना पसंद करते हैं (कोल्हू के बैल की भांति) ।
इनके मित्रों का दायरा विस्तृत नहीं होता किन्तु जिनको ये नजदीकी स्थिति में ले आते हैं, उनसे प्रायः जीवन भर सम्बन्ध बनाए रखते हैं। आमतौर पर ये जातक स्पष्टवादी तथा साफ दिल होते हैं। फिर भी अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त
नहीं कर पाते/नहीं करते। वृष लग्न वाले जातक अपने जीवनसाथी को जरूरत से ज्यादा अच्छा मानते हैं। उनमें जो गुण नहीं भी होते, वे गुण भी वृष लग्न के जातक
खामख्वाह ढूंढ़ निकालते हैं और दूसरों के सामने उसकी तारीफ करते नहीं अघाते ।
प्रायः ये संचयी व मितव्ययी होते हैं
यदि बलिष्ठ वृष लग्न में शुक्र लग्नस्थ हो तो ऐसे जातक गोरे, सुडौल,रूपवान, सुशील, बुद्धिमान, कवि तथा विद्वान होते हैं। वैद्यक के जानकार हो सकते हैं। शृंगारप्रिय होते हैं परन्तु प्रायः दो विवाह करते हैं। रतिप्रिय व रसिक होते हैं। यदि शुक्र उच्च का (ग्यारहवें घर में) हो तो गुण, विद्या, धन एवं प्रतिष्ठा और
भी बढ़ते हैं।
रोग ज्योतिष के अनुसार वृष लग्न वाले जातकों का शुक्र यदि निर्बल या पाप प्रभाव में हो तो उनको मूत्र रोग, गुप्त रोग, वीर्य रोग, यौन रोग आदि विशेष रूप से सम्भावित होते हैं। विशेषकर तब जब सप्तम भाव भी पापाक्रांत हो अथवा छठा
भाव पाप प्रभाव में हो। ऐसे जातकों का यदि दूसरा या बारहवां भाव पाप प्रभाव में हो तो उनको नेत्र रोगों की भी तीव्र सम्भावना होती है। लग्नेश बारहवें स्थान में हो तो कामेच्छा/कामाग्नि अतितीव्र हो जाती है। मंगल से युति भी हो तो जातक बलात्कारी अथवा जंगली/वहशी ढंग से सहवास करने वाला होता है।
विशेष (रोग) -वृष लग्न यदि पाप ग्रहों से युत व शुक्र निर्बल हो अथवा वृष लग्न में क्षीण चन्द्र पाप ग्रहों से दृष्ट होकर लग्नस्थ हो तो जातक सदा रोगी रहते हैं ।वृष लग्न में गुरु यदि लग्न में हो और शुक्र आठवें भाव में हो तथा लग्न प्रभाव में हो तो जातक बावजूद खूब इलाज के भी सदा रोगी ही रहते हैं
वृष लग्न में शुक्र चौथे या बारहवें भाव में मंगल व बुध के साथ युति करे तो जातक को कुष्ठ रोग संभव होता है। स्वयं शुक्र लग्नस्थ होकर पापदृष्ट हो तो नेत्र रोगों की तीव्र सम्भावना होती है (सूर्य-चन्द्र भी निर्बल/पीड़ित हों तो जातक अंधा
भी हो सकता है) ।
• वृष लग्न में शनि व चन्द्र दोनों छठे भाव में हों तो भी कुष्ठ रोग सम्भावित होता है। यदि सूर्य, गुरु व शुक्र की युति दुःस्थानों में हो रही हो तो वाहन दुर्घटना में मृत्यु होती है।
वृष लग्न में चौथे भाव में पापग्रह हों तथा शुक्र व चतुर्थेश पापग्रहों के मध्य हों तो जातक हृदय रोगी होता है। अथवा वृश्चिक का सूर्य पापग्रहों के मध्य व पाप दृष्ट हो तो जातक की मृत्यु का कारण तीव्र हार्ट अटैक होता है। यदि चौथे
भाव में राहू अन्य पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा लग्नेश (शुक्र) निर्बल हो तो भी तीव्र हार्ट अटैक होता है।
वृष लग्न में चौथे, पांचवें भाव में पापग्रह हों तथा सूर्य नीच का हो तो जातक हृदय रोगी होता है। अथवा सिंह का शनि चौथे, सूर्य व अष्टमेश (गुरु)पापग्रहों के मध्य हों तो भी जातक को हृदय रोग होता है।
मेरे सुयोग्य आचार्य श्री कौशिक के अनुसार वृष लग्न के जातक प्रायः धन सम्पन्न होते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में वृष लग्न की कुछ कुंडलियां ऐसी भी आई हैं,जिनमें जातक नितांत अभावग्रस्त और बर्बाद स्थिति में हैं।
अतिविशेष-प्रायः देखने में आया है कि वृष/तुला लग्न में यदि शुक्र व बुध की युति (लग्न के अलावा कहीं भी हो तो जातक संतानोत्पत्ति में असमर्थ होता है)।
लग्न - मिथुन
मिथुन लग्न (लग्नेश बुध )
जब लग्नकुण्डली के प्रथम भाव में मिथुन राशि हो तो जातक का लग्न मिथुन होता है। मिथुन राशि का स्वामी बुध है। अतः मिथुन लग्न का स्वामी भी बुध ही होता है। बुध बुद्धि का कारक है। गणित, ज्योतिष, विद्या, व्यापार,मनोरंजन, क्रीड़ा, विनोद आदि का भी कारक है। परन्तु अति सौम्य व ठंडे स्वभाव का है (नपुंसक/बच्चा ग्रह है)। दूसरी ओर मिथुन का प्रतीक चिह्न दो बालकों का जोड़ा है। जो परस्पर खेल रहे हैं (कहीं इन्हें पुरुष व स्त्री के युगल के रूप में भी दर्शाया जाता है) । अतः मिथुन लग्न के जातकों का विवेचन करते हुए मिथुन के प्रतीक चिह्न तथा बुध की विशेषताओं को ध्यान में रखना ज़रूरी है। इस आधार पर सहज ही कहा जा सकता है कि मिथुन लग्न के जातक क्रीड़ा व मनोरंजन प्रेमी, हंसमुख एव बातूनी, व्यापारी बुद्धि वाले (गणना में चतुर), शीतल स्वभाव के (बहुत कम क्रोध में आने वाले) किन्तु अतिकामुक प्रवृत्ति के होते हैं। यद्यपि इनकी कामशक्ति अपेक्षाकृत अल्प हो सकती है और बालकों की भांति ऐसे
• जातक चंचल/अस्थिर स्वभाव वाले होते हैं।
मिथुन लग्न वाले जातक पढ़ने के शौकीन हो सकते हैं। ये सुविकसित शरीर वाले, प्रायः सीधे लम्बे कद वाले और पतले शरीर वाले होते हैं। ये अपने विचारों या योजनाओं को तुरन्त क्रियान्वित करने वाले (फुर्तीले व उत्साही किन्तु जल्दबाज),
गणिज्ञ/गणना में कुशल, बुद्धिमान, अच्छे वक्ता, प्रभावशाली वाणी वाले किन्तु संकोची व दूसरों का सहारा लेकर आगे बढ़ने वाले होते हैं (इनमें आत्मविश्वास स्थिति में नहीं होता) । प्रायः ये अच्छे पेशे से होते हैं (व्यापारी, बैंक की
सुदृढ़ नौकरी, एकाउन्टेंट, गणक, सेल्स एजेन्ट/कमीशन एजेण्ट आदि) । मेकेनिकल साइंस में इनकी खासी रुचि रहती है। ये लोग चंचल प्रकृति के, अस्थिर मति वाले तथा विपरीत लिंगियों के प्रति अधिक आसक्ति रखने वाले होते हैं। इनको विपरीत लिंगियों से सावधान रहना चाहिए। अकेले रहना इनको पसंद नहीं होता। गोष्ठियों या स्त्रियों के साथ में/मित्रों के साथ में इन्हें विशेष सुख मिलता है (अपवाद रूप
में कभी कुछ जातकों का कद छोटा भी मिलता है तथापि सक्रियता उनमें होती है अन्यथा प्रायः कद लम्बा ही होता है)। इनका रंग गेहुआं होता है। आंखें छोटी किन्तु दृष्टि तेज होती है। नाक प्राय: छोटी और पैनी व चेहरा गोलाईयुक्त होता है।
कान भी अपेक्षाकृत छोटे पर आकर्षक होते हैं।
सतत् विचारशील रहना, हर व्यक्ति या वस्तु पर शंका करना तथा जीवन / जीवन शैली में कुछ न कुछ परिवर्तन के विषय से चिंतित रहना इनका स्वभाव होता है।
क्योंकि ये एकरसता पसंद नहीं करते, परिवर्तन चाहते हैं। यदि ये पुस्तक भी पढ़ेंगे तो मोटी पुस्तक नहीं पढ़ेंगे। यदि पढ़ेंगे तो कई किश्तों में पढ़ेंगे या बोर होकर छोड़ देंगे। आत्मविश्वास की सबलता न होते हुए भी ये लोग खरीदने, बेचने, प्रचार-
प्रसार, यात्रा सम्बन्धित कार्यों में रुचि लेते हैं। मिथुन लग्न के जातकों में बैठे-बैठे अपने शरीर का कोई अंग हिलाते रहने की आदत प्रायः होती है और ये लोग प्रायःतीव्र गति से चलने वाले होते हैं। ऐसा मेरा अनुभव है। यदि बुध की स्थिति सुदृढ़
हो तो प्रायः इन लोगों के गाल भी फूले हुए (फूलकर कुप्पा हो गए जैसे) मिलते तथा बिना मतलब भी ये बातचीत करते समय हंसते रह सकते हैं।
तुला, धनु व कुम्भ लग्न के जातकों से मिथुन लग्न के जातकों की मित्रता शुभदायक होती है। यदि लग्न पर पाप प्रभाव हो तो जातक को त्वचा रोगों तथा फेफड़ों या स्नायुओं के रोग सम्भावित होते हैं।
यदि मिथुन लग्न बलिष्ठ स्थिति में हो तथा बुध भी बली होकर लग्नस्थ हो तो ऐसे जातक शिल्पकार, गणितज्ञ, सांवले-सलोने, बुद्धिमान तथा विद्वान होते हैं शरीर हल्का किन्तु स्वभाव तमोगुण व सतोगुण के मिश्रित स्वभाव का एवं दयावान
होता है। यदि बुध चौथे घर में हो तो ऐसे जातक माता को अधिक प्रिय होते हैं तथा भूमि एवं माता का गड़ा धन प्राप्त करने वाले होते हैं।
मिथुन लग्न के जातक प्राय: इतने बातूनी होते हैं कि धाराप्रवाह बोलते चले जाते हैं और बाद में समय का ध्यान आता है। इन जातकों में एक प्रकार का अन्तर्द्वन्द्व-सा रहता है जो इनको इनके शौक, विचारधारा आदि को अधिक समय
स्थायी नहीं रहने देता। अक्सर मिथुन लग्न वाले जातक एक ही समय में कई काम करते हुए पाये जा सकते हैं। मसलन टी.वी. देखते हुए बात भी कर रहे होंगे और कोई और काम भी कर रहे होंगे। घोड़े की भांति स्थिर या शांत बैठना/खड़े रहना
इनके वश में नहीं होता। ऐसे जातक नौकरी भी करेंगे तो SIDE में कुछ अलग काम भी कर रहे होंगे। यही इनकी सफलता का राज भी है।
मेरा अपना मानना है कि बुध क्योंकि चन्द्रमा का बृहस्पति की पत्नी से उत्पन्न नाजायज पुत्र है। परन्तु इतना सुन्दर व चतुर है कि बृहस्पति व चन्द्रमा दोनों ही उसे पुत्र रूप में स्वीकार करते हैं। अतः मिथुन लग्न के जातकों में चतुराई(उनकी अपनी), ज्ञान, बुद्धि, विद्या (बृहस्पति की) तथा चंचलता एवं विपरीत
लिंगी के प्रति प्रबल आकर्षण (चन्द्रमा का) सभी विद्यमान रहते हैं। मिथुन लग्न के जातक यदि एक बालक की भांति छोटी-छोटी बातों पर खुश हो सकते हैं और भावुक होते हैं तो एक प्रौढ़ की भांति समझदार व अक्लमंद भी होते है। बुध को
ENGLISH में मरकरी कहते हैं। मरकरी का अर्थ पारा है और पारा कभी स्थिर नहीं रहता। अतः चंचलता व परिवर्तनशीलता मिथुन लग्न वालों का स्वभाव है।
वैसे भी मिथुन लग्न वायुतत्त्व प्रधान है, अतः चंचलता व अस्थिरता यहां प्रमुख रूप से रहेगी।
रोग ज्योतिष के अनुसार लग्न व बुध यदि पाप प्रभाव में हों तो मिथुन लग्न के जातकों को त्वचा सम्बन्धी रोगों का विशेष भय रहता है। वाणी, फेफड़े, आंतों तथा नाड़ी तंत्र के रोगों की भी सम्भावना रहती है। गले के रोग या तुतलाहट आदि
वाणीदोष बुध के निर्बल व पापाक्रांत होने से प्रत्येक लग्न में सम्भावित होते हैं,
विशेषकर तब जब दूसरा भाव व द्वितीयेश भी पाप प्रभाव में हो। मूक बधिर होने की स्थिति में बुध की भूमिका अवश्य रहती है।
विशेष (रोग) -मिथुन लग्न में षष्ठेश (मंगल) पापदृष्ट हो तो नेत्रों द्वारा जलस्त्राव के रोग से पीड़ित होकर जातक के अंधे हो जाने की सम्भावना होती है।
मिथुन लग्न हो और वृश्चिक राशि में सूर्य दो पापग्रहों के मध्य हो तो जातक को तीव्र हार्ट अटैक होता है। > मिथुन लग्न में यदि लग्नेश (बुध) निर्बल हो और चतुर्थ भाव में राहू अन्य पापग्रहों से दृष्ट हो तो भी जातक को हार्ट अटैक की प्रबल सम्भावना होती है।
> मिथुन लग्न में चतुर्थ भाव में कन्या राशि का शनि हो और कुम्भ का सूर्य नवम भाव में हो तो जातक हृदय रोगी होता है ।
> मिथुन लग्न में पांचवां और चौथा भाव पापग्रहों से युक्त हो तो हृदय रोग की प्रबल सम्भावना होती है। अथवा चतुर्थ भाव में शनि हो, षष्ठेश (मंगल) व सूर्य पापग्रहों के मध्य हों तो भी जातक हृदय रोगी होता है।
> मिथुन लग्न में चतुर्थेश व लग्नेश (बुध) यदि नीच का होकर अस्त हो तो जातक को हृदयाघात झेलना पड़ता है।
मिथुन लग्न में बुध अष्टमस्थ हो तो जातक पर रोगों का आक्रमण सदैव होता ही रहता है। यदि दशमस्थ हो (नीच का) और दशम भाव पाप प्रभाव में हो तो घुटनों में दर्द देगा।
अतिविशेष—मिथुन लग्न, लग्नेश बुध, तृतीय भाव, तृतीयेश (सूर्य) ये चारों पाप प्रभाव में हों तो कान, कंधे व श्वास नली के रोग अवश्य होते हैं। चन्द्रमा भी पीड़ित हो व राहू/शनि का प्रभाव तृतीय भाव तृतीयेश, तृतीय राशि व राशीश पर हो
तो दमा/अस्थमा होता है। बुध, मंगल व चन्द्र की INVOLVEMENT पाप प्रभाव में हो तो जातक को कुष्ठ, सफेद दाग, एलर्जी आदि चर्म रोग निश्चित रूप से होते हैं।
लग्न - कर्क
कर्क लग्न (लग्नेश चन्द्र )
प्रथम भाव में जब कर्क राशि हो तो जातक कर्क लग्न का होता है। कर्क का राशीश चन्द्र है। अतः कर्क लग्न का लग्नेश भी चन्द्र होता है। इस लग्न को ज्योतिष शास्त्र में ‘रानी लग्न’ कहकर पुकारा गया है। श्रेष्ठ लग्नों में सिंह, कर्क
तथा वृष की ही गिनती क्रमशः विशेषरूप से होती है। कर्क लग्न वाले जातकों का विवेचन करते समय हमें इस लग्न/राशि के प्रतीक चिह्न कर्क (केकड़े) तथा इसके स्वामी चन्द्र के गुण-विशेषताओं को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। कर्क लग्न एक महत्त्वपूर्ण लग्न है। क्योंकि क्षत्रिय (मेष), वैश्य (वृष), शूद्र (मिथुन) के बाद यह प्रथम ब्राह्मण लग्न है और आध्यात्मिकता में प्रवेश का प्रथम सोपान कर्क लग्न से ही खुलता है। कर्क लग्न जल तत्त्व प्रधान है। अतः चंचलता के साथ शीतलता व उपकार भावना का कर्क लग्न के जातकों में विशेष रूप से समावेश रहता है। चन्द्र व केकड़े की चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर सहज ही कहा जा सकता है कि कर्क लग्न वाले जातक सौम्य, शांत, क्षमाशील, अस्थिर मनःस्थिति वाले, रसिकमिजाज, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होने वाले किन्तु उन्हें अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेने वाले, वशीकरण/सम्मोहक व्यक्तित्व वाले,
पसंद करने वाले भी होते हैं।
कर्क लग्न के जातक अत्यधिक संवेदनशील, अतिचंचल, संगीत व कला प्रेमी, सौंदर्य प्रेमी, मनोरंजन प्रेमी, प्रकृति (जलीय स्थान विशेष) प्रेमी, वाचाल,भावुक, ईमानदार, न्यायप्रिय, घुमक्कड़, शृंगारप्रिय (रात में ज्यादा), कवि, कलाकार,फैशनेबल, लापरवाह और कुछ ईर्ष्यालु होते हैं। इनकी ईर्ष्या डाह वाली न होकर स्पर्धात्मक होती है। ये लोग तीव्र एवं कुशाग्र बुद्धि, स्पष्ट चरित्र के होते हैं। किन्तु
प्रायः कुछ सनकी, प्रतिष्ठावान होते हैं। परिवार के प्रति बहुत मोह रखने वाले और धुन के पक्के होते हैं। प्रेम-प्रसंगों में प्रायः असफल रहने वाले ये जातक अक्सर पूर्वाभास/इन्ट्यूशन की क्षमता से युक्त होते हैं।
इनका कद मंझला, छाती चौड़ी, चेहरा भरा हुआ, भुजाएं लम्बी, धड़ अपेक्षाकृत लम्बा, शरीर का रंग साफ व गोरा होता है किन्तु स्त्रियों की भांति कोमल व लचीला होता है। इनकी चाल में एक विशेष प्रकार की मस्ती या शालीनता रहती
है। व्यक्तित्व आकर्षक व लुभावना होता है।
ये कल्पनाजीवी, अस्थिरचित्त तथा भावनाओं से संचालित होते हैं। शीघ्र ही उत्तेजित व शांत हो जाते हैं। व्यावहारिकता के मामले में कुशल नहीं कहे जा सकते। प्रायः जल से उत्पन्न वस्तुओं के कारोबार या चन्द्र सम्बन्धी कार्यों के
माध्यम से आजीविका कमाने वाले, नीतिकुशल होते हैं। राजनीति, डॉक्टरी, अध्यापन,नौका चालन कला, संगीत या शृंगार सम्बन्धी व्यवसायों में ये अधिक पाए जाते हैं।
इन्हें वृश्चिक, मकर तथा मीन लग्न के जातकों की मित्रता शुभ रहती है। उदर,हृदय, मूत्र संबंधी रोग एवं शीत रोग या कफ रोगों की सम्भावनाएं इनको अधिक होती हैं।
कर्क लग्न के जातकों को निर्णय लेने में देर लग सकती है। किन्तु इनके निर्णय सटीक होते हैं। ये लोग छोटी-छोटी बातों को भी दिल में रख लेने वाले होते हैं और अक्सर उन बातों को मौन रूप से छिपाए रहते हैं। जब क्रोध आता/विस्फोट
होता है तब महीनों या दिनों पुरानी उन शिकायतों को कहते हैं और जब तक कह नहीं लेते तब तक मन ही मन उन बातों को लेकर स्वयं घुटते रहते हैं। यह कर्क लग्न वालों की एक विशेषता है। वैसे इनका परामर्श बड़ा सृजनात्मक होता है।
किन्तु इन पर ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की कहावत फिट बैठती है।
कर्क लग्न के जातक सौम्य व शांत स्वभाव के होने से बहुत कम क्रोधित होते हैं। होते भी हैं तो अपने क्रोध को अपने में ही सीमित रखते हैं, दूसरे पर प्रकट नहीं करते। करते हैं तो बहुत दिनों बाद किसी अन्य अवसर पर शिकायत के रूप में प्रकट करते हैं। ये लोग लड़ाई-झगड़े से दूर रहने वाले तथा धीमे स्वर में बात करने वाले होते हैं। अक्सर ये लोग ऊंची आवाज में बोलने वालों को पसंद नहीं
करते। ये लोग दूसरों के प्रति प्रेम व सहयोगपूर्ण व्यवहार रखते हैं। दूसरों की तकलीफ देखकर शीघ्र पिघल जाने वाले तथा अपनी सीमा से बाहर जाकर भी उनका सहयोग करने का प्रयास करने वाले होते हैं। ये एक बालक की भांति भोले
और निष्कपट होते हैं। दूसरों की बुराइयों पर विशेष ध्यान नहीं देते। उसे नज़रअंदाज कर देते हैं।
कर्क लग्न वालों का भाग्य प्रायः उत्तम होता है। पर पाचनशक्ति प्रायःकमजोर होती है। उदर रोग सम्भावित होते हैं। विशेषकर शनि की साढ़ेसाती में अथवा शनि जब कर्क राशि से गुजरता है तो इनको अधिक तकलीफ देता है । प्रायः
यह कष्ट शारीरिक होता है किन्तु कई बार किसी निकट सम्बन्धी की मृत्यु आदि कारणों से इनकी भावनात्मक अवस्था या मानसिक स्थिति बिगड़ जाती है। कर्क लग्न वाले जातक जिद पर आ जाएं तो प्रायः असम्भव को भी वे सम्भव बना
डालते हैं। जीवन के प्रति इनका दृष्टिकोण भी कभी नकारात्मक नहीं होता। शांत व ठंडे स्थानों पर रहना इन्हें पसंद होता है। ऐसे स्थानों पर रहना इनके भाग्य के विकास तथा मन की शांति के लिए जरूरी भी होता है। ऐसा भी प्रायः देखा गया
है कि इनको जन्म स्थान से दूर जाने पर सफलता की प्राप्ति होती है। कर्क लग्न के जातक अपने बाल्यकाल की पुरानी व छोटी बातों को भी स्मरण रखते हैं। यह उनकी विशेषता होती है।क्योंकि मेरा स्वयं का लग्न कर्क है। अतः मैंने इस लग्न के जातकों के अध्ययन में विशेष रुचि रखी है। मेरे अनुभव से कर्क लग्न के जातकों में कुछ विशेषताएं और भी देखने में आई हैं, जो इस प्रकार हैं-कर्क लग्न वालों का मस्तिष्क विचारों से नहीं भावनाओं से प्रेरित होता है।
एक बार जिससे धोखा खा चुके हैं उसे भी तकलीफ में देखें तो उसकी सहायता को तैयार हो जाते हैं। पशुओं के प्रति इन्हें विशेष करुणा रहती है। चन्द्रमा जिस प्रकार घटता-बढ़ता रहता है, उसी प्रकार इनकी मनोवृत्ति भी बहुत तेजी से बदलती रहती है। ये मूड़ में आ जाएं तो अपनी सामर्थ्य से भी अधिक परिश्रम लगातार करते चले जाते हैं और थकते नहीं, किन्तु मूड न बने तो इनके छोटे-छोटे काम भी
दिनों तक यूं ही पड़े रहते हैं। इसी प्रकार न डरें तो ये लोग शेर से भी न डरें और डर जाएं तो चूहे से भी डर जाएं-ऐसे होते हैं। विशेषरूप से तब जब इनकी गलती हो, ये विरोध नहीं करते और तुरंत क्षमा मांग लेते हैं। किन्तु इनकी गलती न हों तो
ये पूरा विरोध करते हैं। ये लोग अपने मनोबल व बुद्धिबल से जीवन की विकट
इन जातकों पर उम्र भर बच्चों की तरह मासूमियत का प्रभाव रहता है।
बीती हुई बातों को भी विस्तार से इस प्रकार कहना मानो वह अभी-अभी हो रही हो, कर्क लग्न वालों की ऐसी विशेषता होती है। कर्क लग्न वाले आस्तिक व धर्मभीरू होते हैं। इन्हें किसी भी काम को करने की कोई जल्दी नहीं होती। ये
जल्दबाज बिलकुल नहीं होते और प्रायः समय के पाबंद होते हैं। शब्दों व सिद्धांतों का मान रखने वाले होते हैं। यानी कमिटमेंट पूरी करने वाले तथा सिद्धांतों के लिए जाने वाले होते हैं। यही वजह इन्हें कभी-कभी सनक की स्थिति तक भी ले जाती है। कर्क लग्न के जातकों में स्वप्न द्वारा या कभी-कभी यूं ही बैठते-चलते भविष्य सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर लेने की क्षमता भी बहुत बार देखी गई है। इनके जीवन में भावना का महत्त्व धन, यश या किसी भी वस्तु से बहुत अधिक होता है।
न्यायप्रियता की हद यह होती है कि न्याय के लिए अपने प्रिय/सम्बन्धी/मित्र को छोड़कर अपरिचित का पक्ष लेने में भी नहीं हिचकते ।
कर्क लग्न के जातकों का स्वभाव समझने के लिए चन्द्रमा के चारित्रिक गुणों को बारीकी से समझना चाहिए और केकड़े के स्वभाव को भी। चन्द्रमा समुद्र मंथन से उत्पन्न रत्नों में से एक है और कालकूट विष तथा लक्ष्मी का सहोदर है। शिव
की जटाओं में सुशोभित होता है (शीश पर)। समुद्र में ज्वारभाटे का कारक है।
अत्यधिक चंचल, रसिक, कामुक, सौम्य व शीतल है। ये सभी गुण कर्क लग्न में पाए जाते हैं। कर्क लग्न के जातक सौम्य, शान्त, चंचल, रसिक, कला/सौंदर्य प्रेमी तथा कामुक होते हैं। जितना ये विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षित होने का स्वभाव
रखते हैं, उतना ही उन्हें आकर्षित कर लेने का गुण भी रखते हैं। प्रौढ़/वृद्ध होने पर भी इनके चेहरे पर एक भोलापन व सौम्यता बरकरार रहती है। पक्कापन नहीं आता।
ये जातक शिव की भांति ही भोले, उदार और जनहितकारी होते हैं। धन का अभाव कर्क लग्न वालों में देखने में नहीं आता। यद्यपि ये शत्रुता को भुला देने वाले होते
हैं किन्तु किसी प्रबल कारण से यदि किसी से प्रतिशोध लेने पर आ जाएं तो बड़े नीतिपूर्ण एवं युक्तिपूर्ण ढंग से प्रतिशोध लेते हैं। केकड़ा जैसे किसी को नाहक परेशान नहीं करता किन्तु पकड़ ले तो उससे छूटना मुश्किल हो जाता है। उसी
प्रकार कर्क लग्न वाले अपने काम से काम रखने वाले होते हैं। पर ठान लें तो अपने मनोबल से कुछ भी कर सकते हैं।
अब अपने अनुभव को छोड़ ज्योतिष के शास्त्रीय तथ्यों पर पुनः लौटते हैं।
चन्द्रमा स्वप्रकाशित नहीं है। परन्तु मन का कारक है। सूर्य (जिसके प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता है) ब्रह्मांड का नेत्र है। नेत्र से जो दीख नहीं पाता वह मन की आंख देख पाती है। अतः चन्द्रमा की शक्ति मन या ब्रह्मांड की गहनता में छिपे भेद भी उजागर कर सकने में समर्थ है। सम्भवत: इसी कारण कर्क लग्न के जातकों में अन्तर्ज्ञान की प्रवृत्ति पाई जाती है। यदि चन्द्रमा क्षीण न हो तो कर्क लग्न के जातकों का मनोबल भी अत्यंत विकसित होता है। सम्भवतः इसीलिए लाल किताब में
कर्क लग्न को आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करने का प्रथम द्वार माना गया है।
यदि कर्क लग्न में गुरु लग्नस्थ हो तो (उच्च का होने के कारण) जातक धार्मिक, विद्वान तथा परिष्कृत होता है। ऐसा जातक धर्म प्रचारक या उच्च धर्म पथ प्रदर्शक बन सकता है। यदि लग्न में चन्द्रमा हो तो जातक गोरा, बहुत सुन्दर,आकर्षक, घुमक्कड़ परन्तु लापरवाह/कामों को टालने वाला, शृंगारप्रिय और स्त्रैण स्वभाव का होता है। वह रजोगुण प्रधान होता है। यदि चन्द्रमा ग्यारहवें भाव में हो तो उच्च का होने से इन फलों में वृद्धि करता है तथा जातक का यश व धन और भी अधिक बढ़ते हैं। जातक स्वावलम्बी होता है। किन्तु कर्क लग्न में चंद्रमा सातवें भाव में हो तो जातक पत्नीभक्त होता है और उसे पत्नी भी काली-कलूटी मिलती है।
रोग ज्योतिष के अनुसार कर्क लग्न में चंद्र नीच का हो (पंचमस्थ) तो जलोदर रोग होता है। कर्क लग्न वाले जातकों को चंद्र निर्बल व पापाक्रांत हो तो फेफड़ों, रक्त तथा छाती के रोग देता है। कफ़ व शीत के रोग भी देता है। राहू या
शनि का चन्द्र पर प्रभाव हो तो क्षय/टी.बी., कैंसर व चित्तभ्रम आदि रोग होते हैं।
विशेष (रोग) – कर्क लग्न में यदि लग्नेश चन्द्र आठवें भाव में हो अथवा छठे भाव में हो तो जातक रोगी रहता है। यदि आठवें भाव में चन्द्रमा शनि से युति कर रहा हो तो जातक प्रेतबाधा या शत्रुओं से पीड़ित होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त
होता है।
> कर्क लग्न में शनि के साथ राहू या केतु यदि दसवें भाव में हो और चन्द्रमा निर्बल या पापाक्रांत हो तो जातक की माता की मृत्यु या जातक को मातृसुख का अभाव हो जाता है। चतुर्थ भाव, चतुर्थेश, लग्न व लग्नेश पापाक्रांत हो तो मातृसुख में बाधा होती है तथा जातक को छाती के रोग निश्चित रूप से होते हैं।
> यदि चन्द्रमा के साथ राहू चतुर्थ भाव में हो और कर्क लग्न भी पाप प्रभाव में हो तो जातक को चित्तभ्रम, वहम, भयभीत रहना या ऊपरी हवा आदि की पूर्ण सम्भावनाएं होती हैं।
> कर्क लग्न व लग्नेश (चन्द्र) दोनों पापग्रहों के मध्य हों, सप्तम भाव भी पापग्रह से युक्त हो तथा सूर्य निर्बल हो तो जातक जीवन से निराश होकर आत्महत्या कर लेता है। ऐसा लाल किताब का मत है। > कर्क लग्न हो, चन्द्रमा पापग्रहों के साथ हो, शनि सप्तमस्थ हो तो जातक देवशाप से या शत्रु से पीड़ित रहता है। अथवा दूसरे भाव में सूर्य तथा चौथे व दसवें भाव में पापग्रह हों तो जातक को अति कष्टप्रद जीवन जीना पड़ता है.
> कर्क लग्न हो, चौथे भाव में सूर्य, आठवें में गुरु, बारहवें भाव में चन्द्र हो तथा चन्द्र पर शुभ दृष्टि न हो तो जातक जन्म लेते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
> कर्क लग्न हो, दूसरे या बारहवें भाव में पापग्रह हों, चन्द्र निर्बल हो तथा लग्न, द्वितीय व द्वादश भाव पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो 32 वर्ष की आयु में मृत्यु सम्भव होती है।
> कर्क लग्न में सूर्य सप्तमस्थ हो तो जातक को नेत्र रोग होता है। ऐसा लाल किताब का मत है।
अतिविशेष (स्त्री जातक) — कर्क लग्न में बुध यदि तीसरे भाव में हो तो स्त्री जातकों को व्यभिचारिणी बनाता है। यदि शुक्र भी साथ हो तो निश्चित रूप से-ऐसा मेरे सुयोग्य आचार्य श्री कौशिकजी का मत है (वैसे लगभग एक दर्जन
स्त्री जातकों की कुंडलियों में मैंने पाया है कि कर्क लग्न में शनि सातवें भाव में हो तो स्त्री जातकों के स्तन बड़े परन्तु लटके हुए होते हैं और उनके पति व्यभिचारी तथा अल्प कामशक्ति वाले होते हैं। परन्तु अभी और अध्ययन करने पर ही निश्चित सिद्धांत बनाया जा सकता है) ।
→ कर्क लग्न हो, चन्द्र शुक्र व शनि की युति दुःस्थानों में हो तो जातक की मृत्यु वाहनदुर्घटना में होती है।
→ कर्क लग्न, चतुर्थस्थ पापग्रह, चतुर्थेश पापग्रहों के बीच हो तो जातक को हृदय रोग होता है। अथवा शुक्र शनि के साथ अष्टम भाव में हो तो भी हृदय रोग होता है। अथवा चौथे भाव में शनि, षष्ठेश सूर्य के साथ पापग्रहों के बीच हो तो भी
जातक को हृदय रोग होता है। या फिर शनि चौथे भाव में तथा सूर्य आठवें भाव में हो तब भी जातक को हृदय रोग होता है।
> कर्क लग्न हो, चौथे भाव में राहू पापग्रहों से दृष्ट हो और चन्द्रमा निर्बल हो तो जातक को हार्टअटैक होता है। यदि सूर्य वृश्चिक राशि में (पांचवें भाव में)दो पापग्रहों के साथ हो तो जातक हार्ट अटैक से मरता है।
स्त्री जातक विशेष-कर्क लग्न में जन्म लेने वाली स्त्रियां प्रायः सुन्दर ही होती हैं। किन्तु चन्द्रमा लग्न में हो तो पति को अतिप्रिय होती हैं। लेकिन यदि शनि लग्न में हो तो स्त्री एक नम्बर की जिद्दी होती है (वृष लग्न में जन्म लेने वाली
स्त्रियां भी प्रायः सुन्दर होती हैं)।
लग्न - सिंह
सिंह लग्न (लग्नेश सूर्य )
जन्मकुंडली के प्रथम भाव में सिंह राशि हो तो जातक सिंह लग्न का होता है। सिंह राशि का राशीश सूर्य है। अतः सिंह लग्न का लग्नेश भी सूर्य होता है।
यदि कर्क को ‘रानी लग्न’ माना गया है तो सिंह को ‘राजा लग्न’ माना जाता है (केवल कर्क व सिंह लग्न/राशि ही ऐसे हैं जिनके स्वामी चन्द्र व सूर्य मात्र इन्हीं के एकछत्र स्वामी हैं। शेष सभी लग्न/राशियों के स्वामी दो-दो राशियों/लग्नों के
स्वामी होते हैं। पाठकों को स्मरण दिला दें। अतः कर्क व सिंह महत्वपूर्ण लग्नों में सर्वप्रथम हैं)। सिंह लग्न के जातकों का विवेचन करने के लिए हमें इस राशि के प्रतीक ‘सिंह’ (बब्बर शेर) तथा स्वामी सूर्य की विशेषताओं को ध्यान में रखना
चाहिए। इस आधार पर संक्षेप में सहज ही कहा जा सकता है कि सिंह लग्न के जातक जोशीले, असहनशील, क्रोधी, स्वतंत्रता प्रेमी, डोमिनेट करने वाले (नेतृत्व क्षमता से युक्त व आदेश देना या शासन करना, पसंद करने वालों या हावी हो जाने वाले), शरीरवादी, निडर, आत्मविश्वासी, अभिमानी किन्तु आलसी व निद्रालु होते हैं (मंगल-सूर्य की स्थिति खराब हो तो ऐसे जातक हिंसक, आक्रामक तथा क्रूर भी हो सकते हैं)।
सिंह लग्न के जातकों को क्रोध शीघ्र आता है। ये प्रायः ऊंची आवाज में या चिल्लाकर बोलने वाले होते हैं। इनको अपनी असफलता बर्दाश्त नहीं होती, वैसे ये सहिष्णु हो सकते हैं किन्तु एक हद तक ही। ये लोग भावुक व सिंसियर होते हैं
किन्तु प्राय: प्राकृतिक नियमों को न मानने वाले होते हैं। इस कारण इन्हें बहुत बार कठिनाइयां भी झेलनी पड़ती हैं। ये शासित होना पसंद नहीं करते। हुक्म चलाने की इन्हें आदत होती है। ये लोग उत्साही, जोशीले तथा महत्त्वाकांक्षी होते हैं। कला,साहित्य व संगीत के प्रेमी भी होते हैं। इनका चेहरा अंडाकार तथा कद औसत होता है। परन्तु कंधे चौड़े व पुष्ट होते हैं। इनकी आंखों में एक विशेष प्रकार की चमक
होती है। व्यक्तित्व आकर्षक होता है। प्रकृति प्रेमी तो होते हैं, किन्तु खुले स्थानों में रहना पसंद करते हैं। बन्धन इन्हें पसन्द नहीं होता। ये स्वतंत्रता प्रेमी तथा अभिमान की हद तक स्वाभिमान रखने वाले होते हैं। ईर्ष्यालु होते हैं। आलसी तथा
निद्रालु होते हैं। बैठे-बैठे, टी.वी. देखते-देखते, पढ़ते-पढ़ते ये लोग सो जाते हैं और रात में भरपूर सोने के बाद भी दिन में सो सकते हैं। गृहस्थी में ये प्रायःअसफल रहते हैं। अपने से बड़ों तथा अपने साथियों द्वारा ये जातक गलत समझे
जाते हैं। इनको नाड़ी तन्त्र की परेशानी प्रायः सम्भावित होती है।सिंह लग्न वालों का शरीर सुगठित, हड्डियां, पुट्ठे व कंधे मजबूत होते हैं ।
छाती चौड़ी होती है। इनमें जीवनी शक्ति भरपूर होती है। सिंह लग्न के जातक शानो-शौकत के प्रदर्शन में विश्वास रखते हैं। विद्या/अध्ययन में रुचि लेते हैं।
यद्यपि भीतर से ये दयालु होते हैं किन्तु क्रोध आने पर बेकाबू हो जाते हैं। सिंह लग्न के जातक प्रायः विज्ञान, शिक्षा, मैनेजमेंट, प्रशासक, वकील या जंगल (वन
ज्वर तथा सिरदर्द या दिमाग का कोई रोग सम्भव होता है। (माइग्रेन, आधासीसी,ब्रेन ट्यूमर आदि) । सिंह लग्न के जातक भौतिकवादी होते हैं।
सिंह लग्न के जातक शाही मिजाज वाले होते हैं (यदि उनका सूर्य बहुत ही अशुभ न हो तो)। उनका माथा व गाल उभरे हुए तथा नाक तीखी व उन्नत होती है । छाती, कंधे व जांघें मांसल एवं पुष्ट होती हैं। उनकी चाल में एक अकड़ या विशेष प्रकार का आकर्षण हो सकता है। प्रायः ये जातक अपने वस्त्रों का भी विशेष ध्यान रखने वाले होते हैं। अक्सर ये लोग अपनी चोटों की परवाह नहीं करते तथा अपना दुखड़ा औरों के आगे नहीं रोते। यह एक प्रकार से दूसरों से दया या सहानुभूति की भीख मांगने जैसा होता है, जो इन्हें पसंद नहीं होता। ये अपना
दुख स्वयं झेलते हैं। इसका कारण इनका स्वाभिमान अभिमान की हद तक पहुंचे होना है। ये अपनी आर्थिक समस्याएं भी दूसरों को नहीं बताते। ये जहां भी रहते
हैं आकर्षण का केन्द्र बनकर रहना चाहते हैं और ऐसा होता भी है। भीड़ में खड़े सिंह लग्न के जातक को आप नज़रअंदाज नहीं कर सकते । सिंह दुर्गा/शक्ति का वाहन है, जो असुरमर्दिनी है। सिंह लग्न के जातक क्रोध आने पर क्या कर बैठें यह कहना कठिन होता है। प्रायः ये बाद में अपने क्रोध
पर पछताते भी नहीं हैं। इसके विपरीत कर्क लग्न के जातक परिस्थितिवश क्रोध करें भी तो बाद में न्यायपूर्ण विश्लेषण कर अपनी गलती पर न केवल पछताते हैं
बल्कि प्रायः स्वयं को दंडित भी करते हैं। सिंह लग्न के जातक सूक्ष्म बुद्धि वाले नहीं होते। अतः अंतर्ज्ञान प्रेरणा इनमें कम ही मिलती है। इनकी सोच, जीवनशैली व मानसिकता शुद्ध भौतिकवादी होती है।
मेरे अपने अनुभव में देखने में आया है कि सिंह लग्न के कुछ जातकों में सिंह के स्वभाव के विपरीत संचय का गुण भी विद्यमान रहता है। इसके बावजूद वे शाह खर्च होते हैं और इस बात की परवाह भी नहीं करते कि कब, कहां, कितना
खर्च हो गया है। ये दूसरों के परामर्शों पर अधिक ध्यान नहीं देते और मनमर्जी करते हैं। यहां तक कि कोई नया काम आरम्भ करने से पूर्व उसके दोनों पक्षों पर विचार नहीं करते। अतः अपनी गलतियों से सीखने का माद्दा इनमें कम ही रहता
है। इनकी योजनाएं व स्वप्न बहुत ऊंचे स्तर के होते हैं। क्योंकि ये प्रबल भौतिकवादी होते हैं। लेकिन दुनिया से अथवा दिखावे से ताल्लुक रखने वाले होते हैं। दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए ये कई बार ऐसे भी काम कर जाते हैं जो इनके लिए घातक
होते हैं। लेकिन इनमें प्रशासनिक क्षमता बहुत अच्छी होती है। ये औरों से काम लेना जानते हैं। ये लोग किसी का अहसान लेना पसंद नहीं करते। दूसरों की धनादि से सहायता करके खुशी महसूस करते हैं। लेकिन इनकी सहायता अपनी सीमा के भीतर होती है। (जबकि कर्क लग्न का जातक सीमा से बढ़कर भी सहायता करता है) अतः इनकी सोच कर्क लग्न वालों की तुलना में अधिक प्रैक्टिकल व स्वार्थ प्रधान होती है। किन्तु आडम्बरी प्रवृत्ति के कारण व ऊंची आकांक्षाओं के कारण अनप्रैक्टिकल-सी मालूम होती है (सूर्य आत्मा का कारक होते हुए भी आध्यात्मिक
ज्ञान की ओर सिंह लग्न वाले जातकों की रुचि नहीं होती)। उच्च स्वाभिमान के कारण ये अपना दुख-दर्द तक किसी को नहीं बताते जब तक सामने वाला अतिविश्वसनीय न हो और वह स्वयं ही न कुरेदे। शायद यही कारण है कि इनको
प्रायः इनके निकटस्थों व बुजुर्गों द्वारा भी गलत समझ लिया जाता है। बहरहाल… ।
यदि सूर्य लग्न में ही बैठा हो (सिंह लग्न में) और बलवान स्थिति में हो तो जातक रजोगुणी, प्रतापी, वीर, पराक्रमी, शक्तिशाली तथा राजा का पद व अधिकार प्राप्त करने वाला होता है। यदि नवम भाव में सूर्य हो तो ये फल और बढ़ते हैं तथा जातक विदेश से भी यश, धन, मान प्राप्त करने वाला, प्रबल प्रतापी एवं विख्यात होता है। रोग ज्योतिष के अनुसार सिंह लग्न वाले जातकों को मस्तिष्क सम्बन्धी,
हृदय सम्बन्धी रोगों की सम्भावना रहती है। यदि सिंह लग्न में तीसरे भाव में सूर्य हो तो कान के रोग देता है। सूर्य लग्न वालों को हड्डी सम्बन्धी रोग तीव्रता से सम्भव होते हैं। यदि सूर्य पर पाप प्रभाव हो या मंगल से अशुभ युति होती हो जल जाने या
अग्निकांड की सम्भावनाएं भी बनती हैं। यदि सिंह लग्न में सूर्य आठवें भाव में हो तो प्यास तथा खुश्की का रोग होता है।
विशेष (रोग) – सिंह लग्न में सूर्य सप्तमस्थ हो तो जातक को नेत्र रोग होता है तथा उसकी पत्नी को भी गर्भाशय या योनि के रोग सम्भव होते हैं । पुत्र उत्पन्न नहीं होते या मर जाते हैं।
> यदि सिंह लग्न में शनि लग्नस्थ हो तथा सूर्य निर्बल हो, चन्द्र भी पाप प्रभाव में हो तथा दूसरे व बारहवें भाव पर भी पाप प्रभाव हो तो जातक जन्म से ही अंधा होता है।
> सिंह लग्न में आठवें भाव में निर्बल चन्द्र यदि शनि के साथ हो तो प्रेतबाधा या शत्रुकृत अभिचार से जातक की अकाल मृत्यु सम्भावित होती है।
> सिंह लग्न हो, लग्न में सूर्य दो पापग्रहों के मध्य हो, दूसरे तथा बारहवें भाव में पापग्रह हों तो जातक 47वें वर्ष में अस्त्र-शस्त्र या विस्फोटक सामग्री का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
> सिंह लग्न में चन्द्रमा पापग्रह के साथ, सातवें भाव में शनि हो तो जातक देवशाप/शत्रुकृत अभिचार से पीड़ित होता है। आठवां भाव भी INVOLVE हो तो मृत्यु भी सम्भावित हो जाती है।
>> सिंह लग्न में शनि लग्नस्थ हो और सूर्य मकर राशि में हो (EXCHANGE)तथा सूर्य पर शुभ दृष्टि न हो तो जातक की बारहवें वर्ष में मृत्यु हो जाती है।
>> सिंह लग्न, सूर्य-दोनों पापग्रहों के बीच हो, चन्द्र निर्बल व शनि सप्तमस्थ हो तो जातक जीवन से निराश होकर आत्महत्या कर लेता है ।
>> सिंह लग्न हो, कन्या का राह, सूर्य व शुक्र शुभ दृष्टि से हीन हों तो जातक बड़ा होकर पिता की हत्या करके स्वयं भी मर जाता है (दसवें व नौवें भाव की स्थिति भी विचारनी चाहिए)।
>> सिंह लग्न हो, सूर्य लग्न में शनि, मंगल, राहू व गुरु के साथ हो तो जातक अपनी माता की हत्या कर देता है (चौथे भाव तथा चन्द्रमा की स्थिति भी विचारनी चाहिए)।
→ सिंह लग्न में मंगल द्वादशस्थ हो तथा राहू/केतु से युति करता हो तो भी जातक मातृघातक होता है ।
>> सूर्य पर मंगल/शनि की दृष्टि हो अथवा शनि सिंह लग्न से लग्नस्थ हो तो जातक क्रमश: नेत्रहीन व भेंगा होता है। अथवा सूर्य चौथे में तथा मंगल दसवें भाव में हो तो जातक काना व अधर्मी होता है। सिंह लग्न में पापग्रह हो तथा सूर्य निर्बल
हो तो जातक रोगी होता है।
>> सिंह लग्न, मेष का गुरु, मीन का मंगल (EXCHANGE) हो तो जातक की 12वें वर्ष में मृत्यु होती है। अथवा दूसरे व बारहवें भाव में पापग्रह हो, सूर्य निर्बल हो तथा लग्न, द्वितीय व द्वादश भाव पर शुभदृष्टि न हो तो जातक 32वें वर्ष
में मर जाता है।
>> सिंह लग्न में सूर्य सातवें, मंगल दसवें हो तथा बारहवां भाव निकम्मा हो तो जातक के पुत्रों की एक-एक करके मृत्यु हो जाती है (अकेला सूर्य सातवें भाव में हो और सिंह लग्न हो तो भी जातक की नर-संतान समाप्त हो जाती है, यह पहले
बता ही आए हैं)।
>> सिंह लग्न, चौथे पापग्रह, चतुर्थेश व चंद्र पापग्रहों के मध्य हो एवं सूर्य निर्बल हो तो जातक को हृदय रोग होता है। अथवा मंगल, गुरु/अष्टमेश के साथ आठवें भाव में हो तो भी हृदय रोग से भारी कष्ट हो।
→ चतुर्थेश/मंगल नीच का हो या आठवें भाव में हो, या अस्त हो तो भी सिंह लग्न के जातक को हृदय रोग होता है अथवा वृश्चिक के शनि के साथ सिंह लग्न में सूर्य सातवें भाव में होता है तो भी जातक हृदय रोगी होता है।
अतिविशेष-सिंह लग्न की कन्याएं विवाह के लिए आदर्श नहीं मानी जा सकतीं क्योंकि क्रोध, क्लेश, झगड़ा करने वाली तथा ऊंचा बोलने वाली होती हैं।
लग्न - कन्या
कन्या लग्न (लग्नेश बुध )
जन्मकुण्डली के प्रथम भाव में कन्या राशि होने पर जातक का लग्न कन्या होता है। यह बुध के स्वामित्व का दूसरा लग्न है (मिथुन का स्वामी भी बुध है और कन्या का भी) । अतः बुध इस लग्न का लग्नेश होता है। इस लग्न के जातकों का
विवेचन करते समय बुध के गुण-स्वभाव तथा लग्न/राशि के प्रतीक चिह्न कन्या (VIRGIN) की विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए (यहां पाठकों का ध्यान एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर दिला दूं कि मात्र कर्क और सिंह को छोड़कर शेष
सब लग्नों या राशियों में दो-दो का स्वामित्व एक-एक ग्रह के पास होता है। जैसे बुध मिथुन व कन्या का, मंगल मेष व वृश्चिक का, गुरु धनु व मीन का, शुक्र वृष व तुला का तथा शनि मकर व कुम्भ का स्वामी होता है-जैसा कि पाठकों को
स्मरण ही होगा। केवल चन्द्र व सूर्य एक-एक राशि क्रमशः कर्क व सिंह के स्वामी होते हैं । अतः कर्क में चन्द्रमा का तथा सिंह में सूर्य का सम्पूर्ण प्रभाव मिलता है। क्योंकि ये राशियां इन ग्रहों के एकछत्र स्वामित्व में हैं। शेष राशियों/लग्नों
में स्वामी ग्रह का सम्पूर्ण प्रभाव नहीं पड़ने पाता क्योंकि वह दो राशियों में बंट जाता है। उदाहरण के लिए बुध की कुछ विशेषताएं मिथुन में तो कुछ कन्या में मिलेंगी। इसी प्रकार अन्य ग्रहों से सम्बन्धित राशियों में भी समझना चाहिए)।
·बुध के स्वभाव तथा कन्या की विशेषताओं की रोशनी में कन्या लग्न के जातकों का विश्लेषण करते समय कुछ मोटे तथ्य सहज ही जाने जा सकते हैं।
यथा-कन्या लग्न के जातक भावुक, सीखने के शौकीन, कला व संगीतप्रेमी,आत्मविश्वास की कमी/संकोची स्वभाव वाले, औसत कद के, स्त्रैण स्वभाव वाले, विनोदी, मित्रों में रहना पसंद करने वाले, चतुर (व्यापारिक बुद्धि वाले),
गणितज्ञ व अपने लाभ के प्रति सतत् जागरूक रहने वाले (बहुत अर्थों में स्वार्थी/SELFCENTERED) होते हैं।
कन्या लग्न के जातकों का माथा चौड़ा, नाक सीधी, कद दरम्याना तथा छाती प्रायः चौड़ी होती है (बुध खराब हो तो जातकों की छाती कमजोर होती है)। यदि बुध की स्थिति अच्छी हो तो जातकों के गाल भी गोलगप्पों की भांति गोल व उभरे हुए हो सकते हैं। कन्या लग्न के जातकों में आत्मविश्वास की कमी होती है।
इनकी सोच व प्रकृति भी प्रायः निम्न स्तर की होती है। ये लोग भावुक तथा सीखने के शौकीन और कला व संगीत के प्रेमी होते हैं। इनका दिमाग़ सक्रिय रहता है।
बुद्धि तेज होती है। ये लोग चतुर तथा अपने लाभ/स्वार्थ के प्रति जागरूक रहने वाले होते हैं। दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता इनमें होती है। ये लोग गणितज्ञ/ज्योतिष/लेखन/अध्ययन से प्रायः जुड़े होते हैं। फिजीकल व केमिकल
साइंसिज में ये जातक प्रगति कर सकते हैं। ऐसे जातकों को लकवा/नर्वस ब्रेकडाउन आदि की सम्भावना होती है। संगीत में विशेष रुचि होती है तथा ये अकेले न रहकर संगति पसंद करने वाले होते हैं।
कन्या लग्न वालों का शरीर व संरचना कोमल होती है। इनका शरीर दुबला-पतला भी हो सकता है, परन्तु सुगठित होता है। ये लोग चुस्त व संज-संवरकर रहने वाले होते हैं। विशेषकर पोशाक के प्रति जागरूक रहते हैं और प्रायः अपनी
वास्तविक उम्र से कम दिखाई देते हैं। इनका रंग गेहुआं परन्तु साफ होता है। शरीर चिकना या कम बालों का हो सकता है। ये जातक लज्जालु/संकोची हो सकते हैं।
झिझक या दब्बू प्रकृति के होते हैं। किन्तु अत्यधिक सावधान रहने वाले होते हैं।
प्रेम सम्बन्धों में प्रायः असफल रहते हैं । प्रायः ये कई विषयों में सीमित पक्ष तक सूक्ष्म जानकारी रखने वाले होते हैं, भले ही इन्हें उस विषय की पूर्ण जानकारी नहीं होती । वृष, मकर व मीन लग्न के जातकों से इनकी मित्रता शुभ रहती है।
मनोविज्ञान, आलोचना, दुकानदारी, व्यापार, गणित, लेखन, दलाली व नौकरी इनके लिए सफल व्यवसाय होते हैं।
यदि कन्या लग्न के जातकों का लग्नेश लग्न में ही हो तो ऐसे जातक अच्छे शिल्पी होते हैं। विद्वान, गणितज्ञ या मुंशी होते हैं। वर्ण कांतियुक्त व सलोना होता है तथा जातक बुद्धिमान व दयालु होता है। दसवें घर में बुध हो तो जातक को
राजा/सरकार से सम्मान प्राप्त होता है तथा पिता का धन प्राप्त होता है। ऐसा जातक सफल व्यापारी हो सकता है। आठवें घर का बुध जातक को रक्तविकार या शस्त्र द्वारा मारे जाने की सम्भावना बनाता है। ग्यारहवें घर का बुध जातक को ऊंचा
व्यापारी बनाता है। किन्तु बारहवें घर में बुध हो तो जातक को अदालती चक्करों में उलझना पड़ता है ।
कन्या लग्न के जातक खेलों में काफी रुचि लेते हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि वे स्वयं उम्दा खिलाड़ी भी हों। ये लोग अपना सब कार्य योजनाबद्ध ढंग से करते हैं। प्रायः लिखकर, टाइम टेबल बनाकर/एक्शन प्लान आदि बनाकर। ये लोग विनम्र होते हैं। इनकी आवाज में भारीपन/मर्दानगी का कुछ अभाव-सा रहता है।
कई बार स्त्रियों जैसी ही आवाज होती है। ये लोग बोलते समय दीर्घसूत्रता से काम लेते हैं। दो वाक्यों में कह दी जाने वाली बात को विस्तार से बीस वाक्यों में कहते हैं। अपने खर्चों का भी ये हिसाब-किताब रखते हैं। प्रायः ये मन का भेद किसी को
नहीं देते। ये लोग भौतिकवादी होते हैं। परन्तु अपने प्रिय व्यक्ति की बीमारी आदि,उनकी छोटी-छोटी जरूरतों का भी ध्यान रखते हैं। ये परिवर्तन के इच्छुक होते हैं।
अक्सर मैंने कन्या लग्न वाले बहुत से जातक कई बार नौकरियां बदलते भी देखे। ये तकनीक पसंद करने वाले तथा कार्यों को निश्चित ढंग से करने वाले होते हैं।
ये लोग कंजूस तो नहीं कहे जा सकते परन्तु सोच-विचार कर खर्च करने वाले व
हिसाब-किताब से चलने वाले होते हैं। प्रायः मेरे देखने में आया है कि ये जातक गृहस्थी में पत्नी का हाथ (खाना बनाना/कपड़े धोना आदि) बंटाने वाले होते हैं।
रोग ज्योतिष के अनुसार कन्या लग्न के जातकों को पेट तथा त्वचा के रोगों की तीव्र सम्भावना होती है (इसमें नर्वस ब्रेकडाउन/नाड़ी तंत्र सम्बन्धी रोग भी शामिल होते हैं, विशेषकर तब जब लग्न व लग्नेश अशुभ प्रभाव में हो तथा शुभ दृष्टि से रहित/निर्बल हो) ।
विशेष (रोग) – कन्या लग्न में मकर का शनि (पंचमस्थ) हो, बुध तथा सातवें भाव (मीन राशि) में हों तो जातक नपुंसक होता है। अथवा कामशक्ति अत्यंत अल्प होती है
→ कन्या लग्न में चन्द्रमा हो, गुरु आठवें और राहू नौवें भाव में हो तो राहू की महादशा और गुरु की अंतर्दशा में जातक भयंकर रोगों से पीड़ित होता है।
→ कन्या लग्न, चौथे भाव में राहू व चन्द्र शनि से दृष्ट किन्तु शुभ दृष्टि से हीन हों तो निश्चित रूप से क्षय रोग (T.B.) जातक को अपना शिकार बनाता है।
>> कन्या लग्न में षष्ठेश (शनि) लग्न में हो तथा पापग्रहों से दृष्ट हो तो नेत्रों से जलस्राव के कारण जातक अंधा हो जाता है (निश्चितता के लिए सूर्य तथा दूसरे व बारहवें भाव को भी विचारना चाहिए) ।
→ कन्या लग्न, सूर्य व शनि सप्तमस्थ, चन्द्र व बुध छठे भाव में हों तो जातक को मिरगी का रोग होता है ।
→ कन्या लग्न चौथे भाव में पापग्रह, चतुर्थेश (गुरु) पापग्रहों के मध्य हो तो जातक को हृदय रोग होता है या चौथे या पांचवें दोनों भावों में पापग्रह हों तो भी हृदय रोग होता है। अथवा चौथे में राहू अन्य पापग्रहों से दृष्ट हो व बुध (लग्नेश)
निर्बल हो तो हार्टअटैक होता है।
→ कन्या लग्नस्थ मंगल हो, शुक्र छठे भाव में हो और गुरु या शनि की दृष्टि हो तो जातक को अल्सर या पेट में घाव होता है। कन्या लग्न में पापग्रह हों तथा बुध निर्बल हो अथवा राहू कन्या लग्न में षष्ठमस्थ हो तो जातक सदा रोगी रहता है।
कन्या लग्न में चन्द्रमा आठवें भाव में हो, बुध व सूर्य, मंगल की युति किसी भी भाव में हो तो जातक की मृत्यु ब्लडप्रेशर के रोग द्वारा कराती है।
→ कन्या लग्न शनि व बुध के प्रभाव में हो तथा शुक्र मकर या कुम्भ राशि में हो तो जातक पत्नी को संतुष्ट नहीं कर पाता।
कन्या लग्न हो, बुध, गुरु, मंगल की युति दुःस्थानों में कहीं एकसाथ हो तो दुर्घटना का शिकार होकर जातक मरता है।
→ कन्या लग्न, लग्नेश, बुध चतुर्थस्थ या द्वादश भाव में मंगल व शनि के साथ हो तो जातक को कुष्ठ सम्भव होता है → कन्या लग्न, निर्बल चन्द्र आठवें भाव में शनि के साथ हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है।
→ कन्या लग्न, बुध व लग्न दोनों पाप मध्य हों, सातवें भाव में भी पापग्रह हों और सूर्य निर्बल हो तो जातक जीवन से निराश होकर आत्महत्या कर लेता है।
→ पांचवें या छठे भाव में सूर्य, मंगल, गुरु या राहू हो तो कन्या लग्न के जातक को सदा रुग्ण रखते हैं।
→ कन्या लग्न, सूर्य, मंगल शनि की युति आठवें भाव में हो, शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो तो जातक की मृत्यु एक वर्ष की अवस्था में हो जाती है। अथवा राह, बुध, शनि बारहवें भाव में युति करें और गुरु पंचमस्थ हो तथा कोई शुभ योग
कुंडली में न हो तो जातक की मृत्यु जन्म लेते ही हो जाती है।
बुध प्रायः सूर्य या शुक्र के साथ ही होता है। अपवाद रूप से अकेला होता है। अतः बुध सम्बन्धी फलादेश उसकी युति को ध्यान में रखकर करना चाहिए।
वैसे यदि बुध बलिष्ठ स्थिति में लग्नस्थ हो तो अन्य अरिष्टों का नाश करता है अन्यथा (निर्बल हो तो) चिकित्साविदों की चिकित्सा भी व्यर्थ होती है। जातक सदा रुग्ण रहता है। जैसा कि चमत्कार चिन्तामणि में कहा गया है-
बुधो मूर्तिगो मार्जयेदन्यरिष्टं
गरिष्टाधियो बैखरी वृत्तिभाजः ।
जनादिव्य चामीकरी भूतदेहाश्चिकित्साविदो
दुश्चिकित्सा भवन्ति ॥
लग्न - तुला
तुला लग्न (लग्नेश शुक्र)
जन्मकुंडली के प्रथम भाव में तुला राशि हो तो जातक तुला लग्न का होता है। तुला राशि का राशीश शुक्र है । अत: तुला लग्न का लग्नेश भी शुक्र होता है।
तुला लग्न के जातकों का विवेचन करते समय हमें तुला लग्न के लग्नेश शुक्र के गुण-स्वभाव तथा तुला राशि के प्रतीक चिह्न ‘तुला’ (तराजू) की विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए। इसके आधार पर सहज ही यह स्थूल निष्कर्ष निकाले जा
सकते हैं कि तुला लग्न के जातक व्यवहारकुशल, चतुर, संतुलन बनाए रखने (अपने परिवार व समाज के साथ) में माहिर, व्यापारिक बुद्धि वाले, धन वृद्धि के इच्छुक, शॉपिंग के शौकीन, न्यायप्रिय किन्तु अस्थिर बुद्धि वाले तथा शौकीन
मिजाज एवं कामुक होते हैं। स्त्रियों की सोहबत तथा बाजार में रहना इन्हें पसंद हो सकते हैं। प्रायः ये सभी कार्य तीव्रतापूर्वक करने वाले हो सकते हैं। निस्संदेह सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व वाले होते हैं। विपरीत लिंगी को ये अपनी ओर विशेष
रूप से आकर्षित करते हैं और नियम, कायदे, कानून, मर्यादा, सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करते। क्योंकि न्याय और निष्पक्षता के पक्षधर होते हैं। यदि शुक्र लग्न या द्वितीय भाव में हो तो इनके चेहरे का सौंदर्य तथा लावण्यता बुढ़ापे में भी बनी रहती है। ऐसा भी देखा गया है।
तुला लग्न के जातक सक्रिय होते हैं। अक्सर ये तेज चलने वाले होते हैं। परिष्कृत एवं उच्च विचारों वाले होते हैं। ये लोग आदर्शवादी, ऊर्जावान, सकारात्मक
स्वभाव के, न्यायप्रिय व औसत कद-काठी के होते हैं। इनका रंग गोरा होता है। ये और आकर्षक व्यक्तित्व वाले होते हैं। पुरुष जातकों में स्त्रैण स्वभाव पाया जाता है। चेहरा चौड़ा हो सकता है (प्रायः लम्बोत्तरा देखने में लगता है)। आंखें
छाती चौड़ी होती है। अपनी आयु से कम लगते हैं। दूरदर्शितापूर्ण तथा मानव स्वभाव के गहन अध्ययन में रुचि रखने वाले होते हैं। शान्ति व नियम मर्यादा से
रहने वाले किन्तु प्रैक्टिकल व महत्वाकांक्षी होते हैं। संगीतप्रेमी, सत्यनिष्ठ व ईमानदार होते हैं। ईमानदारी इनके जीवन में विशेष महत्त्व रखती है। श्रृंगारप्रिय, मृदुभाषी,
सुशील, विनयी किन्तु शौकीन व रसिक होते हैं। इनमें समूह को प्रभावित करने की क्षमता होती है। व्यवस्थाप्रिय होते हैं। स्त्रियों की संगति को पसंद करते हैं।
तुला लग्न के जातकों का शरीर प्रायः नीचे से ऊपर तक एक समान होता है। इनकी आंखों व नाक तथा चेहरे पर विशेष आकर्षण होता है। शरीर संतुलित होता। ये स्नेही तथा दयालु व उदर प्रवृत्ति के होते हैं। किसी भी विषय पर निर्णय लेने
से पूर्व ये भली प्रकार विचार करते हैं। दूसरों को अपनी समझ के अनुसार उचित सलाह देने की उत्सुकता इनमें सदैव रहती है। तुला लग्न के जातक परामर्शदाता(एडवाइजर), वकील, जज, साहित्य एवं नीति निर्धारण के कार्यों में विशेष सफल
होते हैं। अन्य व्यवसाय में भी हों तो ये अपने अधिकारी की दृष्टि में कर्त्तव्यनिष्ठ,प्रशंसा के पात्र व सफल बनते हैं। यदि कुण्डली में अशुभ योग न हो तो ये जातक पूर्ण आस्तिक व धर्म के सम्बन्ध में विशेष रुचि रखने वाले एवं धर्मभीरू होते हैं।मेष, कुंभ व मिथुन लग्न के जातकों की मित्रता तुला लग्न वालों को शुभ व अनुकूल रहती है। यदि लग्न पर अशुभ प्रभाव हो तो इन्हें मूत्र, गुदा, कमर व गुप्तांगों के रोगों की सम्भावना रहती है (स्त्रियों में गर्भाशय की भी) ।
तुला लग्न में शुक्र बलवान हो तो रंग विशेष गोरा, स्वभाव सौम्य, आकृति सुन्दर तथा स्वभाव सतोगुण एवं रजोगुण मिश्रित होता है। ऐसे जातक श्रृंगारप्रिय,साहित्य, संगीत कला में रुचि या दखल रखने वाले। फूल, मोती व सफेद पदार्थों
(चावल, दही आदि) में रुचि रखने वाले, विद्वान, गुणी, मान्य व सौभाग्यशाली होते हैं।
तुला लग्न में पांचवें या ग्यारहवें घर में शुक्र हो तो पुत्रसुख, विद्या लाभ, ज्ञान लाभ एवं धन लाभ विशेष होता है तथा जातकों में काव्य प्रतिभा भी होती है। सप्तम भाव मेंहो तो पत्नी रूपमती होती है। बारहवें भाव का शुक्र धर्म में अधिक खर्चा करवाता है। रोग-ज्योतिष के अनुसार यदि शुक्र व लग्न पाप प्रभाव में हों तो तुला लग्न के जातकों को मूत्र, वीर्य आदि के रोग तीव्रता से सम्भावित होते हैं। यदि
शुक्र छठे भाव में हो अथवा लग्न के अलावा कहीं भी बध के साथ हो (विशेषकर सातवें/बारहवें भाव में) तो जातक के पौरुष/कामशक्ति पर प्रश्नचिह्न भी लग सकता है। तुला लग्न की स्त्री जातक सामान्य से अधिक सुन्दर होती है। शुक्र लग्न
में ही हो अथवा चन्द्रमा लग्न में हो तो अपने पति की विशेष प्यारी होती है तथा गुणवती होती है। मैंने अपने अनुभव में पाया है कि तुला लग्न के जातक परामर्श देते समय सूक्ष्म
विश्लेषण करते हैं तथा सामान्य से अधिक विलम्ब लगाते हैं। परन्तु उनकी राय बहुत सटीक, सकारात्मक, उचित व रचनात्मक होती है। बशर्ते कि आप धैर्यपूर्वक उनकी पूरी बात सुनें और फिर विचारें। सम्भवतः अन्य किसी भी लग्न
के जातक की अपेक्षा तुला लग्न के जातक सर्वाधिक लाभदायक व सटीक परामर्श देने वाले होते हैं। शायद हर कार्य को करने में उस पर प्रारम्भ में गहनता व बारीकी
से सर्वांगीण विचार करना ही तुला लग्न के जातकों को अधिकांशतः सफल बनाने का आधार होता है। किन्तु लग्नेश सबल स्थिति में न हो तो इनका यह सोच-विचार इतना लम्बा भी हो सकता है कि किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले ही
अवसर निकल जाए। यद्यपि तुला का अर्थ व्यापार से भी है और प्रायः ज्योतिर्विद व ज्योतिष ग्रन्थ तुला लग्न वालों को व्यावसायिक बुद्धि का चतुर भी बताते हैं।
परन्तु मैं समझता हूं कि तुला का अर्थ न्याय व निष्पक्षता से लें तो तुला लग्न वालों के लिए अधिक उचित रहेगा। क्योंकि ये इतने ईमानदार होते हैं कि व्यापार वाली बेईमानी/फरेब कर ही नहीं सकते, अलबत्ता इनकी प्रैक्टिकल सोच, दूरदर्शिता तथा
अत्यधिक विनयी होना इन्हें व्यापार या व्यवसाय में सफलतादायक होता है। तुला लग्न वाले जातकों को मैंने अत्यधिक धैर्यवान व सहिष्णु पाया है। ये जिस ध्येय पर
अपना ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं, प्रायः उसे प्राप्त कर ही लेते हैं। फिर भी इनका वैवाहिक जीवन प्रायः सुखमय नहीं होता। ऐसा मैंने दर्जनों तुला लग्न की कुंडलियों में देखा है। बावजूद तुला लग्न वालों की गहन विचार क्षमता, एडजस्टमेंट,
दूरदर्शिता तथा विनय और धैर्य के और बावजूद इसके कि वे सुन्दर व कामकला निपुण होते हैं-इनके वैवाहिक जीवन में प्राय: सुख के अभाव का कारण सम्भवतः सातवें भाव में मंगल की राशि का होना होता है।
तुला लग्न के जातक अपने भाइयों के प्रति भी बहुत समर्पित व निभाने वाले देखे गए हैं। प्रायः ये अपनी पारिवारिक परम्पराओं में भी बहुत विश्वास रखते हैं।
परन्तु महफिलों, पार्टियों आदि में रहना या अपने आस-पास मित्रों आदि की भीड़ रखना इन्हें बहुत पसंद होता है। ये लोग अपने गहन मित्र की सफलता पर हृदय से प्रसन्नता व्यक्त करने वाले होते हैं। किन्तु यदि ठान ही न लें तो प्रायः किसी कार्य या शौक को लम्बा नहीं चलाते। मानसिक अस्थिरता के कारण बहुत से जातक.
सुस्त व लापरवाह भी होते हैं। शुक्र कुंडली में अच्छे स्थान पर बैठा हो तो आध्यात्मिक प्रगति भी करते हैं।
तुला लग्न की स्त्रियां (वृष, कर्क, कन्या तथा मीन लग्न की भी) आमतौरपर सामान्य से अधिक सुंदर तथा कामकला में चतुर होती है। ऐसा अनुभव में भी देखने में आया है और शास्त्रोक्त दृष्टि से भी प्रमाणित होता है ।
विशेष (रोग) – तुला लग्न हो, निर्बल चन्द्र आठवें भाव में शनि के साथ हो तो प्रेतबाधा या शत्रुकृत अभिचार के कारण जातक की मृत्यु होती है। अथवालग्नेश (शुक्र) व लग्न दोनों पापग्रहों से युत हों तथा शनि सातवें भाव में हो तो भी
के अभिचार या देव शाप से जातक की मृत्यु होती है।
→ तुला लग्न हो तथा दूसरे भाव में शनि राहू या केतु के साथ हो तो जीवन बहुत कष्ट से गुजरता है।
तुला लग्न हो, शनि, गुरु व चन्द्र की युति छठे भाव में हो जाए तो जातक को कुष्ठ रोग सम्भव होता है।
→ तुला लग्न में अष्टमेश (शुक्र) लग्न में हो परन्तु आठवें भाव में कोई भी ग्रह न हो तो भी जीवन दुखी होता है।
>> तुला लग्न में पापग्रह लग्नस्थ हों, शुक्र (लग्नेश) निर्बल हो तो जातक सदैव रोगी रहता है। अथवा तुला लग्न में क्षीण चन्द्र हो और पापग्रहों से दृष्ट हो तो भी रोग जातक को घेरे रहते हैं। जातक पूर्ण स्वस्थ नहीं रह पाता ।
>> तुला लग्न हो, गुरु, शुक्र तथा शनि दुःस्थानों में हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है।
>> तुला लग्न में षष्ठेश (गुरु) लग्नस्थ हो तथा पापग्रहों से दृष्ट हो तो जातकनेत्रों से जलस्राव के कारण अंधा हो सकता है (निश्चितता के लिए सूर्य, द्वितीय व बारहवां भाव भी देखें तथा द्वितीयेश व द्वादशेश भी)।
>> तुला लग्न, वृश्चिक का सूर्य (दूसरे भाव में), दो पापग्रहों के बीच हो तो जातक का तीव्र हार्ट अटैक होता है। अथवा चौथे भाव में शनि तथा पांचवें में का सूर्य हो तो भी जातक हृदय रोगी होता है। अथवा चौथे में मकर व शनि तथा छठे भाव में मीन का सूर्य अन्य पापग्रहों के साथ हो तो भी जातक को हृदय रोग का शिकार होना पड़ता है।
तुला लग्न में शुक्र नीच का हो तो पांव में कष्ट देगा, जबकि वृष लग्न में नीच का शुक्र पेट का कष्ट देता है।
लग्न - वृश्चिक
बृश्चिक लग्न (लग्नेश मंगल )
लग्नकुंडली के प्रथम भाव में वृश्चिक राशि हो तो जातक का लग्न वृश्चिक होगा तथा वृश्चिक राशि का स्वामी मंगल उस जातक का लग्नेश होगा। अतःमंगल के गुण-स्वभाव तथा वृश्चिक (बिच्छू) की विशेषताओं को ध्यान में रखकर वृश्चिक लग्न के जातकों के विषय में सहज ही ये स्थूल अनुमान तुरन्त
लगाए जा सकते हैं कि वृश्चिक लग्न के जातक का कद अच्छा/लम्बा व छरहरा होता है। उसकी हड्डियां विकसित व शारीरिक संरचना चुस्त होती है। जातक हैंडसम तथा चेहरे पर लाली लिए होता है। माथा चौड़ा होता है। जातक उत्तेजना-
प्रिय तथा व्यग्र/आपाधापी में रहने वाला होता है। बाल घुंघराले होते हैं। ऐसे जातक को प्रभावित करना कठिन होता है। वृश्चिक लग्न के जातक अपने अपमान को सदा याद रखते हैं और अवसर पाते ही प्रतिशोध लेते हैं। यदि स्त्री जातक हो तो
वह भी पुरुषत्व गुणों से सम्पन्न होती है। जातक साहसी होता है तथा प्रायः शीघ्र रुष्ट/क्रुद्ध हो जाने वाला होता है।
वृश्चिक लग्न के जातक वैभवप्रिय, निपुण व अच्छे लेख वाले होते हैं। ये पत्राचार में निपुण होते हैं तथा संगीतज्ञ या कला व नृत्य में रुचि रखने वाले होते हैं।
इनके मन में जो कार्य करने की इच्छा पैदा हो जाए उसे करने की इन्हें काफी जल्दी/अधीरता रहती है। इनका शरीर सुगठित होता है। प्राय: गर्दन छोटी व मोटी किन्तु पैर लंबे या कुछ बेढंगे होते हैं अथवा हो सकते हैं। फिर भी सम्पूर्ण व्यक्तित्व
रोबदार व आकर्षक होता है। रंग प्राय: साफ ही होता है। इनका स्वभाव एकदम अच्छा या एकदम खराब (नकचढ़ा) होता है (लग्न की स्थिति पर यह निर्भर करता है। लग्न प्रभावित हो तो जातक क्रूर, आक्रामक व हिंसक हो सकता है)।
इनमें भावनाएं विशेष गहन होती हैं। ये जब किसी को प्यार करते हैं तो अन्तर्मन से करते हैं। ये लोग स्वभाव के हठी व अपनी धुन के पक्के होते हैं।
वृश्चिक लग्न के जातकों में खासी संघर्ष क्षमता होती है। मार्ग अच्छा हो या बुरा, ये लोग कठिन से कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए भी प्रगतिशील रहते हैं ये बहुत अधिक भाग-दौड़ करने वाले बेचैन तबियत के लोग होते हैं। इस लग्न के
जातक ज्योतिषी, सेना, पुलिस, राजनीति, इंजीनियर, केमिस्ट, जासूसी, दंत चिकित्सा तथा आलोचना के व्यवसाय में विशेष सफल होते हैं। प्रायः ठगों का लग्न भी वृश्चिक ही पाया जाता है। वृश्चिक लग्न के जातक आध्यात्मिक प्रगति भी कर सकते हैं और डकैती, शराब आदि में गर्क भी हो सकते हैं। प्रायः ये लोग मध्यायु के बाद अधिक सफल/उन्नत होते हैं।
वृश्चिक लग्न के जातकों को पेट दर्द, सिर दर्द, बवासीर, स्नायु रोग सम्भावित होते हैं। लग्न पर अशुभ प्रभाव हो तो इन्हें गले, गुदा, गर्मी व छाती के अलावा
वृश्चिक लग्न में मंगल हो तो जातक अत्यंत क्रोधी, तमोगुणी व शूरवीर होता है। किन्तु लग्न में चन्द्र हो तो जातक सुन्दर तथा अपने क्रोध को नियंत्रित कर शांतिपूर्ण व्यवहार करने वाला होता है। छठे घर में मंगल हो तब भी जातक अति
उग्र स्वभाव का किन्तु शत्रुओं का नाश करने वाला होता है। मंगल शुक्र के साथ बारहवें भाव में हो तो जातक बलात्कारी हो सकता है। यदि मंगल अकेला ही हो तो भी उग्र मैथुन करने वाला होता है।
मेरे अपने अनुभव के अनुसार वृश्चिक लग्न के जातकों में ‘अहं’ बहुत होता है। इनमें POSITIVE और NEGATIVE दोनों शक्तियां पाई जाती हैं। कुल मिलाकर इनका व्यक्तित्व रहस्यमय हो सकता है और उसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना कठिन होता है। आक्रोश तथा आत्महत्या की भावना भी इनमें पाई जाती है। यदि ये आत्महत्या न भी करें (यद्यपि वृश्चिक लग्न के जातक आत्महत्या करने वालों
की LIST में काफी मिलते हैं) तो भी अपनी मृत्यु के सम्बन्ध में अनेक बार सोचते अवश्य रहते हैं। इसका कारण बिच्छु का स्वभाव तथा प्रकृति है। बिच्छु आगे से कोमल तथा पूंछ की ओर से कठोर होता है। उसका सारा जहर उसकी पूंछ के डंक
में होता है। विषम परिस्थितियों में फंस जाने पर बिच्छु स्वयं अपने को ही डंक मारता है। अतः आत्मघाती प्रवृत्ति तथा बहुत अच्छा या बहुत बुरा स्वभाव दोनों वृश्चिक लग्न के जातकों में पाए जाते हैं। वृश्चिक लग्न का जातक देश के लिए, प्रेमी के लिए, मित्र के लिए आत्मोत्सर्ग (बलिदान) कर सकता है, जान भी दे सकता है। किन्तु धोखा होने पर अथवा अपमानित होने पर वह मित्र या प्रेमी से भी बदला लेने से नहीं चूकता।
दूसरे काल पुरुष के अनुसार आठवें भाव में वृश्चिक राशि पड़ती है। अतः रहस्य, मृत्यु आदि का सम्बन्ध वृश्चिक लग्न के जातकों से जुड़ता है। वृश्चिक लग्न में मंगल लग्नेश ही नहीं षष्ठेश भी होता है और मेष लग्न में मंगल लग्नेश ही
नहीं अष्टमेश भी होता है। अतः प्रायः मेष तथा वृश्चिक लग्न के जातक अपने शत्रु स्वयं हो जाते हैं या अपनी मृत्यु के कारण स्वयं हो जाते हैं। बेशक इनमें मंगल की ऊर्जा, शक्ति व साहस निहित होते हैं किन्तु मंगल की संहारक या विनाशक शक्ति
भी साथ जुड़ी रहती है। ये लोग ठान लें तो सब काम छोड़कर लक्ष्य को कठोर श्रम करके भी पा लेने वाले, धुन के पक्के तो होते हैं। पर अक्सर लक्ष्य के अतिनिकट आ जाने पर उत्साही होकर पीछे हटते भी मैंने देखे हैं। वे उस कार्य को स्वयं
सम्भव नहीं होने देते, जो वे सम्भव बना सकते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी वृश्चिक लग्न के जातक देखने में आते हैं, जिन्हें अपनी शक्ति व योग्यता का स्वयं अंदाज नहीं होता। इसके अलावा मन का भेद किसी को न देने की प्रवृत्ति या भेद को गुप्त बनाए रखने की क्षमता भी इनके व्यक्तित्व को रहस्यमयी बना देती है। वृश्चिक लग्न के
बहुत से जातकों में मैंने ‘रक्तदान’ करने का शौक विशेष रूप से देखा है। शायद इसका कारण यह है कि वृश्चिक लग्न जलतत्त्व वाला लग्न है और मंगल लाल रंग का कारक । अतः रक्त का प्रतिनिधि है।
विशेष (रोग) – वृश्चिक लग्न हो और मंगल नीच का हो (नौवें भाव में हो) तो जातक को नितम्बों या पीठ के रोग देता है (जबकि मेष लग्न में नीच का मंगल छाती के रोग देगा, क्योंकि तब कर्क राशि नौवें भाव में न पड़कर चौथे में
पड़ेगी) ।
>> वृश्चिक लग्न तथा लग्नेश मंगल पाप प्रभाव में हो तो जातक को सूखा रोग होने या मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग होने की पूर्ण सम्भावना होती है।
>> वृश्चिक लग्न में मंगल आठवें भाव में हो तथा सूर्य चन्द्र निर्बल और लग्न पाप प्रभाव में हो तो जातक आत्महत्या कर सकता है।
>> वृश्चिक लग्न में मंगल व लग्न दोनों पाप प्रभाव में हों तथा चंद्रमा अष्टमस्थ हो और अष्टम भाव पर भी पाप प्रभाव हो तो हाइड्रोसिल आदि अंडकोष सम्बन्धी रोग तीव्रता से सम्भावित होते हैं ।
>> वृश्चिक लग्न हो तथा चन्द्रमा शनि या राहू के प्रभाव में हो तो जातक को वहम या FOBIA आदि रोग सम्भव होते हैं (विशेषकर तब जब चन्द्रमा चतुर्थ भाव में हो) ।
>> वृश्चिक लग्न में पापग्रह हों और लग्नेश (मंगल) निर्बल हो तो जातक सदैव रोगी रहता है। अथवा बुध लग्नस्थ हो, चन्द्रमा क्षीण हो, सूर्य तथा आठवां भाव पाप प्रभाव में हो और लग्न व लग्नेश निर्बल हो तो जातक आत्महत्या कर
सकता है।
→ वृश्चिक लग्न हो, गुरु चतुर्थ भाव में बैठा हो तथा चतुर्थ भाव पाप प्रभाव में हो तो जातक को फेफड़ों के रोग तीव्रता से सम्भव होते हैं।
>> वृश्चिक लग्न में सूर्य पाप मध्य में हो या चौथे भाव में पापग्रह हों और चतुर्थेश भी पाप मध्य में अथवा अष्टमस्थ हो तथा लग्नेश निर्बल हो तो इन सब स्थितियों में जातक को हृदय रोग होता है। या चौथे भाव में राहू हो तथा मंगल निर्बल हो और सूर्य पाप प्रभाव में हो तो भी जातक हृदय रोगी होता है।
लग्न - धनु
धनु लग्न (लग्नेश गुरु )
धनु लग्न तब होता है, जब जन्मकुण्डली के प्रथम भाव में धनु राशि हो । क्योंकि धनु राशि का स्वामी गुरु/बृहस्पति है। अतः धनु लग्न के जातकों का लग्नेश गुरु होता है। धनु लग्न के जातकों का विवेचन करने के लिए गुरु ग्रह की विशेषताओं तथा धनु राशि के प्रतीक चिह्न धनुष की विशेषताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। इस आधार पर सहज ही य अनुमान लगाया जा सकता है कि धनु लग्न के जातक सुगठित व आकर्षक शरीर वाले, प्राय: सक्रिय (ACTIVE)तीव्रतापूर्वक कार्य करने वाले, अच्छी दृष्टि/दूरदृष्टि वाले, व्यग्र/बेचैन किन्तु लक्ष्य का बेधन करने वाले होते हैं। ये ऊंची महत्वाकांक्षा वाले तथा खाने-पीने व SEX के मामलों में अनुशासित, संयमी व नियंत्रित होते हैं। धर्मभीरू व ईमानदार भी होते हैं तथा प्रायः अपने वचनों को निभाने वाले होते हैं।
धनु लग्न के जातकों के नेत्र बादाम जैसे, बाल भूरे, दांत सुघढ़ तथा चेहरा मुस्कराहट लिए होता है। ये व्यापार पसंद होते हैं किन्तु दर्शन और विज्ञान में भी रुचि रखने वाले होते हैं। विनम्र और सेवक स्वभाव के होते हैं। जीवन के उत्तरार्ध में इन्हें फेफड़ों का विकार सम्भव होता है। पीलिया रोग से ग्रस्त होने की सम्भावनाएं भी धनु लग्न वालों को रहती है।
धनु लग्न के जातक प्रायः अच्छे लम्बे कद के होते हैं। इनका माथा उन्नत/चौड़ा, नाक, रंग व व्यक्तित्व आकर्षक होता है। मध्यायु तक प्रायः इनका पेट कुछ बाहर निकल आता है। अथवा शरीर पर मेदवृद्धि हो जाती है। यदि लग्न अशुभ प्रभाव में न हो तो ये सुन्दर व रूपवान होते हैं। ऐसे जातकों के कान तथा गर्दन प्रायःलम्बे / बड़े होते हैं। ये सत्यवादी, उदार, निःस्वार्थी एवं साधु स्वभाव के अथवा सज्जन होते हैं। बुद्धि तीव्र व रचनात्मक होती है। सभी कार्य भली प्रकार सोच-
विचार कर करते हैं। लग्न व लग्नेश पर यदि अशुभ प्रभाव हो तो ऐसे जातक घमंडी, कायर व कठोर हो सकते हैं। धनु लग्न के जातक बैंक, अध्यापक, लैक्चरर, प्रोफेसर, परामर्शदाता, वकील, धर्मोपदेशक या मठाधीश आदि के रूप में अधिक
सफल रहते हैं। यदि ये व्यापार में भी हों तो पुस्तकों/ज्ञान/धर्म/उपदेश से किसी न किसी रूप में जुड़े रहते हैं। लग्न की स्थिति सुदृढ़ हो या गुरु शुभ प्रभाव में हो तो ऐसे जातक प्रसिद्ध धार्मिक संत या संन्यासी आदि या धर्मगुरु होते हैं।
धनु लग्न के जातकों की मित्रता मेष, मिथुन तथा सिंह लग्न के जातकों से शुभ रहती है। रोग ज्योतिष के अनुसार धनु लग्न के जातकों को मेदवृद्धि तथा यकृत सम्बन्धी रोगों की विशेष सम्भावना होती है। अशुभ प्रभाव में लग्न हो तो जातक को फेफड़े तथा वायु विकार से सम्बन्धित रोग भी हो सकते हैं।
धनु लग्न में गुरु लग्नस्थ और सबल स्थिति में हो तो जातक अन्य वर्ण में जन्म लेकर भी ब्राह्मण के समान पूज्य होता है। ब्राह्मण वर्ण में जन्मा हो तो कहना ही क्या ? ऐसा जातक ज्ञान/अध्यात्म/धर्म/दर्शन आदि विषयों में धुरंधर होता है।
यदि गुरु द्वितीयस्थ हो तो पैतृक सम्पत्ति मिलने नहीं देता। सातवें भाव का गुरु
विदुषी पत्नी दिलाता है। आठवें भाव में गुरु हो तो जातक की आयु तथा मृत्यु तीर्थ स्थान पर होती है।
धनु लग्न के जातक किसी असफलता या दुखद घटना के पश्चाताप में पड़े नहीं रहते, उसे वे शीघ्र भुला देते हैं। परन्तु इस प्रवृत्ति के कारण प्रायः वे असफलताओं से कुछ सीख भी नहीं पाते। एक शिकारी की भांति तलाश तथा लक्ष्य निर्धारण ही
उनके लिए महत्त्वपूर्ण होता है। सफलता या असफलता नहीं। वे अपने मित्रों तथा परिवार के लोगों के परामर्शों पर भी विशेष ध्यान नहीं देते और बहुत अधिक स्वतंत्रता प्रेमी होते हैं। समाज उनके विषय में क्या सोचता है, इसकी उन्हें परवाह
नहीं होती, वे मनमर्जी के मालिक होते हैं ।
धनु लग्न के जातकों का मित्र वर्ग प्रायः काफी विस्तृत होता है। किन्तु उनमें स्थायी मित्रों की संख्या कम तथा बाद में शत्रु बन जानें वाले मित्रों की संख्या अधिक होती है-ऐसा भी देखने में आया है। धनु लग्न के जातक मन में आई बात
प्रायः बीच सभा में बिना इस बात का विचार करके कह डालते हैं कि दूसरों को कैसा लगेगा ? इनके जीवन में औरों की अपेक्षा अधिक प्रेम सम्बन्धों की होती है, किन्तु ये लम्बे चलने वाले/स्थायी नहीं होते। इनके वैवाहिक जीवन में भी
प्रेम/घनिष्ठता अधिक समय तक नहीं रहती। लग्न व गुरु की स्थिति शुभ हो तो अपना नुकसान करके भी मित्रों की मदद करने वाले तथा उस अहसान की चर्चा न करने वाले जातक बहुत उपकारी व आध्यात्मिक होते हैं ।
सम्भावना मेरे अपने अनुभव के अनुसार धनु लग्न के जातक बहुत अधिक आशावादी होते हैं तथा जीवन के कष्टों या संघर्षों को भी वे हल्के ढंग से लेते व ENJOY करते हैं। अपने जीवन की हर ट्रेजेड़ी, हर दुर्घटना, हर असफलता को अतिशीघ्र एक
स्वप्न की भांति भूल जाते हैं। अपनी क्षमता से भी अधिक मदद करने का प्रयास करने वाले होते हैं तथा अपने आर्थिक पक्ष और जीवन के अन्य सामाजिक पक्षों के प्रति भी प्रायः लापरवाह होते हैं। ये लोग अपने मोहल्ले/दायरे में चर्चा का विषय अवश्य बनते हैं। धनु लग्न के सम्बन्ध में मैं अपने गुरु पंडित सुरेश दत्त शर्मा के इस कथन को अत्यंत उचित समझता हूं कि धनु लग्न में इस बात का महत्त्व बहुत होता है कि लग्न में ग्रह कौन-सा बैठा हुआ है ? उस ग्रह का भी बहुत अधिक प्रभाव धनु लग्न के जातकों पर रहता है। यदि लग्न में गुरु/सूर्य/मंगल/चंद्र हो तो धनु लग्न के जातक बहुत अधिक सृजनात्मक हो जाते हैं। किन्तु बुध, शुक्र, शनि.
या राहू लग्न में हो तो स्थिति भिन्न हो जाती है। यदि गुरु स्थिति सुदृढ़ न हो तो यह भिन्नता और भी निश्चित व गम्भीर हो जाती है।
विशेष (रोग) – धनु लग्न हो, सूर्य, मंगल तथा राहू व गुरु की युति यदि दूसरे, तीसरे या बारहवें भाव में हो रही हो तो जातक के शरीर में कोई न कोई रोग बना रहता है। → धनु लग्न हो, दूसरे भाव में शनि हो तथा चौथे व दसवें भाव में भी क्रूर ग्रह हो तो भी जीवन कष्टमय रहता है। अथवा लग्न में पापग्रह हो तथा लग्नेश निर्बल हो तो भी जातक सदैव रोगी होता है।
>> धनु लग्न हो, सप्तम भाव में चन्द्र, मंगल व राहू की युति हो तथा शुभ ग्रह की दृष्टि सप्तम भाव पर न हो तो जातक की मृत्यु जन्म लेते ही हो जाती है।
>> धनु लग्न हो, गुरु वृश्चिक में तथा मंगल धनु में (EXCHANGE) हो तो 12 वर्ष में जातक की मृत्यु तीव्रता से सम्भव होती है (लाल किताब के अनुसार गुरु का दोष निवारक सिद्ध यंत्र धारण करने से ऐसे जातक की आयु बढ़ जाती है)।
>> धनु लग्न हो, आठवें भाव का स्वामी चन्द्रमा लग्न में हो और लग्न का स्वामी गुरु आठवें भाव में ही (EXCHANGE) तथा लग्न पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो जातक का स्वास्थ्य सदा खराब रहता है। किसी प्रकार की दवा-दारू का कोई लाभ नहीं हाता। मंत्र/यंत्र के प्रयोग से ही लाभ की सम्भावना रहती है।
>> धनु लग्न में शुक्र हो तथा पापग्रह दृष्ट हो तो जातक की जलस्राव से दृष्टि क्षीण/अंधे होने की सम्भावना रहती है।
धनु लग्न हो, बारहवें भाव में चन्द्र व शुक्र हो या अन्य दुःस्थानों में चन्द्र-शुक्र की युति हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की अकाल मृत्यु होती है।
→ धनु लग्न हो, चौथे भाव में पापग्रह, चतुर्थेश (गुरु) पापग्रहों के बीच हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
>> धनु लग्न हो, गुरु मकर राशि में हो तथा अस्त/निर्बल हो तो हार्ट अटैक से मृत्यु होती है। अथवा वृश्चिक राशि में सूर्य दो पापग्रहों के मध्य हो तो भी हार्ट अटैक से जातक की मृत्यु होती है।
लग्न - मकर
मकर लग्न (लग्नेश शनि )
जन्मकुंडली के प्रथम भाव में मकर राशि हो तो जातक का लग्न भी मकर कहलाता है। मकर राशि का राशीश शनि है। अतः मकर लग्न के जातक का लग्नेश भी शनि होता है। मकर लग्न के जातकों का विवेचन करने के लिए शनि गुण-स्वभाव तथा मकर राशि के प्रतीक चिह्न ‘मगरमच्छ’ की विशेषताओं को ध्यान में रखना अति आवश्यक है। इस आधार पर मकर लग्न के जातकों के विषय में निष्कर्ष सहज ही निकाले जा सकते हैं कि मकर लग्न के जातक लम्बे स्थूल शरीर वाले (इकहरे या छरहरे), रंग तांबे जैसा (लाल काला मिला हुआ), सिर बड़ा, दांत बड़े, मुंह (दहाना) बड़ा, चालाक, प्रदर्शनकारी प्रवृत्ति के/आडम्बरी तथा कमजोर दिमाग वाले होते हैं। इनके जीवन में परेशानी अधिक रहती है और इनका अपनी जीभ पर नियंत्रण नहीं होता।
मकर लग्न के जातकों में आत्मविश्वास की कमी होती है। ये लोग आलसी व आराम/निद्रा प्रिय होते हैं। अपने जीवनसाथी से ये प्रायः खुश नहीं रहते। नर्वस सिस्टस कमजोर होता है। अतः इन्हें प्रायः अकुलाहट ही रहती है। ये कामुक होते हैं तथा कार्य को टालने की प्रवृत्ति इनमें रहती है। ये लोग भोजन चबाते कम हैं
और निगलते ज्यादा हैं, ऐसा भी देखने में आया है। प्रायः आयु के बढ़ने के साथ-साथ इनका शरीर भर जाता है। प्रायः इन जातकों की नाक थोड़ी-सी मोटी व कुछ गोल-सी पाई जाती है। इनका मुख लम्बोतरा होता है तथा आंखों में एक विशेष
प्रकार की चमक-सी रहती है। अति होने पर ही प्रायः इन्हें क्रोध आता है किन्तु वे इसे जल्दी ही काबू भी कर लेते हैं। प्रायः ये निश्चित प्रवृत्ति के होते हैं। अक्सर ये जीवन में एक से अधिक कामों में लिप्त रहते हैं, भावुक होते हैं। नदी आदि के
किनारों पर रहने में इनका बहुत मन लगता है।
राजनीति, स्वरोजगार, व्यापार, कृषि, खनिज, ठेकेदारी आदि के कार्यों में ये. प्रायः विशेष सफल होते हैं। यदि लग्न अशुभ प्रभाव में हो तो ये बेईमान, स्वार्थी,लालची व कंजूस भी हो सकते हैं और इन्हें वायु, गठिया, जोड़ों के दर्द, पाचन
आदि से सम्बन्धित रोग होते हैं। वृष, कर्क व कन्या लग्न के जातकों से इनकी मित्रता/साझेदारी शुभ रहती है।
मकर लग्न में शनि सबल होकर लग्नस्थ हो तो जातक तमोगुणी, राजसी प्रवृत्ति का, सांवला, क्रोधी, दीर्घ शरीर वाला, दीर्घायु व मंथर गति से चलने वाला होता है। ऐसा जातक आलसी, निद्रालु व पेटू होता है। चौथे घर में शनि हो तो माता से विरोध रहता है। आठवें घर में शनि हो तो जातक की आयु काफी लम्बी होती है, किन्तु वह जीर्ण होकर मरता है। नौवें घर में शनि हो तो धर्म के प्रति अरुचि, दसवें घर में हो तो राज से सम्मान मिलता है। ग्यारहवें घर का शनि नीच लोगों से
आय प्राप्त कराता है। ऐसा जातक उद्योगपति हो सकता है।
मकर लग्न के जातकों पर पारिवारिक जिम्मेदारियां भी प्रायः जल्दी आती हैं। ऐसे जातक बचपन में ही बहुत से घरेलू व बाजारू कार्य खेल छोड़कर करते रहते हैं/करने पड़ते हैं। ऐसा देखने में आया है। शायद इसीलिए लाल किताब के मर्मज्ञ मकर लग्न को ‘कुर्बानी का बकरा’ भी कहते हैं। मकर लग्न के जातकों में परिस्थितियों से जूझने की क्षमता काफी अधिक होती है। इन पर जिम्मेदारियों का बोझ भी काफी रहता है। अनेक अवसरों पर इन्हें अन्य प्रलोभनों को छोड़कर
जिम्मेदारियां निभानी भी पड़ती हैं। परन्तु आलस्य व काम टालने की प्रवृत्ति को ये काबू कर लें तो सफल भी हो जाते हैं। अन्यथा समय से काम न हो पाने का नुकसान भी इन्हें उठाना पड़ता है। ये लोग कंजूस तो नहीं परन्तु मितव्ययी जरूर
होते हैं, क्योंकि बचपन से असुरक्षा भाव से ग्रस्त रहते हैं।
मेरे अपने अनुभव के अनुसार मकर लग्न के जातकों के शरीर व चेहरे पर
परिपक्वता/प्रौढ़ता प्रायः अधिक जल्दी आती है और ये लोग अपनी वृद्धावस्था में भी धनवृद्धि के प्रयासों/चिन्ता में ही लिप्त रहते हैं। ये लोग दूसरों पर जल्दी विश्वास नहीं करते और स्वयं अपनी क्षमता या सामर्थ्य के प्रति भी प्रायः आश्वस्त
नहीं होते। इनके मित्र भी गिने-चुने होते हैं। वास्तव में इनका आलस तथा जिम्मेदारियां इन्हें मित्रों के साथ अधिक समय बिताने ही नहीं देते। मकर लग्न के जातक यद्यपि धन अच्छा कमाते हैं। किन्तु इनके धन का बहुत बड़ा भाग इनके
रिश्तेदार/ बाल-बच्चे भोगते हैं। ये स्वयं कम ही उपभोग कर पाते हैं। इसके अलावा इन लोगों की कामशक्ति सामान्य से अधिक होनी चाहिए जैसा कि मगरमच्छ की खूबी होती है, परन्तु मेरे अनुभव में अब तक प्रायः मकर लग्न के सभी जातक कामुक मिले हैं, परन्तु कामशक्ति की प्रबलता इनमें सिद्ध नहीं हो पाई है। शायद आगे शोध किए जाने पर कुछ और नए निष्कर्ष मिल सकें।
पुनशच – अपने अनुभवों का जिक्र यहां करने का अर्थ यह नहीं कि शास्त्रों व गुरुओं के मतों/निष्कर्षों से मैं सहमत नहीं हूं। अथवा मैं कोई अति उच्च स्थिति को प्राप्त हो चुका हूं। वास्तव में मैं अभी प्रारम्भिक छात्र ही हूं, परन्तु अपने
ऑब्जर्वेशन और विश्लेषण के स्वभाव के कारण जो कुछ पढ़ता, सुनता व सीखता हूं, उसे अनुभव में ढालने का प्रयास करता हूं। ऐसे प्रयासों में जो कुछ अन्य तथ्य मुझे प्रबलता से देखने/सीखने को मिलते हैं उन्हें अपने तर्क व शास्त्रों के ज्ञान पर कसकर—जब मैं सही पाता हूं तो उन्हें ऐसे अवसरों पर पाठकों के सम्मुख रखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता हूं। सम्भवतः पाठकों को इससे अतिरिक्त लाभ प्राप्त हो । अतः मेरे इस प्रयास को अन्यथा न लें।
विशेष (रोग) – मकर लग्न, निर्बल चन्द्र, शनि के साथ आठवें भाव में होतो जातक प्रेतबाधा व शत्रुओं के आघात से पीड़ा पाता है।
→ मकर लग्न और लग्नेश (शनि) दोनों पाप प्रभाव में हों (पापग्रहों के मध्य हों तो विशेषकर) और सातवें भाव में भी पापग्रह हों तो जातक जीवन से निराश होकर आत्महत्या करता है
>> मकर लग्नस्थ सूर्य यदि मंगल, गुरु, राहू व चन्द्र के साथ हो तो जातक शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होता है। अथवा मंगल (चतुर्थेश) बारहवें भाव में हो और सप्तम भाव में शनि हो तथा सप्तमेश (चन्द्र) अष्टमस्थ हो तो 14 वर्ष की अवस्था
में जातक की मृत्यु विमान दुर्घटना में सम्भावित होती है।
है।
→ मकर लग्न, अष्टमेश (सूर्य) लग्नस्थ और लग्नेश (शनि) अष्टमस्थ (EXCHANGE) हो तथा लग्न पर पापग्रह की दृष्टि हो तो जातक रोगी ही रहता है
दवा-दारू से भी चंगा नहीं हो पाता। किन्तु रोग निवारक यन्त्र के धारण से लाभ होता है। मकर लग्न में क्षीण चन्द्र पापग्रहों से दृष्ट हो तो भी जातक रोगी ही रहता है। अथवा लग्न में पापग्रह हों तथा लग्नेश (शनि) निर्बल हो तो भी जातक का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता ।
→ मकर लग्न में षष्ठेश (बुध) बैठा हो तथा पापग्रहों से दृष्ट हो तो जातक नेत्रों से जलस्राव के कारण अंधा हो सकता है।
मकर लग्न में मंगल, शनि व सूर्य की युति दुःस्थानों में हो तो वाहन दुर्घटना में जातक की मृत्यु होती है।
मकर लग्न हो, चौथे भाव में पापग्रह, चतुर्थेश (मंगल) पापग्रहों के मध्य हो तो जातक हृदय रोगी होता है। अथवा मंगल अष्टमेश (सूर्य) के साथ अष्टमस्थ हो तो भी जातक को हृदय रोग होता है। अथवा चौथे भाव में राहू अन्य पापग्रहों से
दृष्ट हो और शनि निर्बल हो तो जातक को हार्ट अटैक होता है। अथवा वृश्चिक का सूर्य दो पापग्रहों के मध्य हो तो भी जातक को हार्ट अटैक होता है। अतिविशेष-मकर लग्न वालों को सूर्य को जल नहीं देना चाहिए।
लग्न - कुम्भ
कुम्भ लग्न (लग्नेश शनि)
जन्मकुण्डली के प्रथम भाव में कुम्भ राशि हो तो जातक कुम्भ लग्न का होता है। कुम्भ राशि का स्वामी शनि ही कुम्भ लग्न का लग्नेश होता है। कुम्भ लग्न के जातक की प्रकृति का विवेचन करने के लिए लग्नेश शनि के गुण-स्वभाव तथा
कुम्भ राशि के प्रतीक चिह्न ‘घड़े’ की विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए।
इनके आधार पर कुम्भ लग्न के जातकों के विषय में सहज ही यह स्थूल निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं कि कुम्भ लग्न के जातक सीमित रहने वाले/संकीर्ण/संकोची मानसिकता वाले होते हैं। ये मेल-मिलाप को अधिक पसंद नहीं करते। शर्मीले
होते हैं। मित्र जल्दी बना लेते हैं। औरों द्वारा प्रायः गलत समझे जाते हैं (अपने संकोची स्वभाव के कारण क्योंकि अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं कर पाते) । पारिवारिक जीवन से संतुष्ट नहीं होते। ऐसे जातक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी, सुदर्शन,
हैंडसम, लम्बे शरीर वाले और इकहरे शरीर के होते हैं। किन्तु मध्यायु के आसपास इनका शरीर भर सकता है। ये प्रायः एकांतप्रिय होते हैं। ज्योतिष आदि में रुचि रखते हैं। अच्छे अध्यापक/व्याख्याता/प्रोफेसर, ज्योतिषी, दार्शनिक या लेखक होते हैं। इन्हें छाती में दर्द की सम्भावनाएं रहती हैं।
कुम्भ लग्न वालों का चेहरा प्राय: गोलाई लिए व बाल काले होते हैं। गम्भीर प्रकृति व चरित्र आचरण में भी गम्भीरता होती है। अपनी बात नाप-तोलकर बोलते हैं। मनन-चिंतनप्रिय होते हैं। गूढ़ ज्ञान तथा भविष्य के सम्बन्ध में इनका दृष्टिकोण/समझ/दूरदर्शिता/पूर्
धैर्य वाले होते हैं ।
सिंह, मिथुन व तुला लग्न के जातकों के साथ कुम्भ लग्न वालों की मित्रता शुभ व लाभकारी मानी गई है। यदि लग्न पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो सिर,पेट, गैस आदि के रोगों की इनको तीव्र सम्भावना रहती है। लग्न में शनि स्वयं
विद्यमान हो तो ऐसा जातक काला, आलसी, मंथर गति से काम करने वाला होता है। दूसरे घर में शनि हो तो पिता के धन (पैतृक सम्पत्ति) के लिए अच्छा नहीं होता। नौवें घर में शनि हो तो जातक को सफर से यश एवं लाभ मिलता है।
कुम्भ लग्न का जातक मानसिक विकास तो करता ही है। अपनी बचपन की पारिवारिक स्थितियों से भी आगे बढ़ता है। ऐसे जातक सहयोग व सहायता करने वाले तथा सौंदर्यप्रेमी होते हैं। किन्तु इनके विचार कभी भी परिवर्तित हो सकते हैं।
ये लोग समस्याओं या संकटों से जूझते हुए मार्ग निकाल लेने में दक्ष होते हैं और किसी न किसी रूप से प्रसिद्धि अवश्य प्राप्त करते हैं। हां, यदि जातक का जन्म अमावस्या का हो और प्रातः काल का हो तो ऐसा जातक अत्यधिक चालाक भी
होता है। लेकिन लग्न पर शुभ प्रभाव हो तो शिल्प, संगीत, चित्र, साहित्य आदि कलाओं में से किसी में जातक की रुचि/दखल जरूर होता है। कुम्भ लग्न के जातक कल्पनाशील होते हैं। इनका वैवाहिक जीवन पूर्णतः सुखमय नहीं होता ।
बल्कि प्रायः क्लेशयुक्त ही रहता है, क्योंकि सातवें भाव का स्वामी सूर्य इनके लग्नेश का प्रबल शत्रु होता है। प्रायः इनकी पत्नियां कर्कश बोलने वाली तथा चिड़चिड़ी या क्रोध करने वाली होती हैं। कुम्भ लग्न के जातकों के सम्बन्ध अपने
भाइयों से भी मधुर नहीं रह पाते। आयु बढ़ने के साथ-साथ कुम्भ लग्न के जातकों की आर्थिक स्थिति को सुधरते हुए पाया जाता है।
ऐसा भी देखने में आता है कि 40 वर्ष की आयु के आसपास कुम्भ लग्न के जातकों के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन आता है और प्रायः उनकी जीवनधारा ही बदल जाती है।
मेरे अपने अनुभव के अनुसार कुछ और विशेषताएं भी कुम्भ लग्न के जातकों में देखने में आई हैं। मुश्किल परिस्थितियों से किसी कुम्भ लग्न के जातक को भय खाते मैंने कभी नहीं देखा। वे किसी अवसर को हाथ से जाने नहीं देते और
प्रायः अपनी क्षमता से अधिक कार्यों में स्वयं को उलझाए रहते हैं। ये लोग विपन्न अवस्था में कभी नहीं मिलते। धन को सद्व्यय करने वाले किन्तु खर्चे का हिसाब-किताब न रखने वाले होते हैं। कुम्भ लग्न के जातकों को पिता का सुख भी पूर्ण रूप से नहीं मिल पाता। अक्सर उनके पिता की मृत्यु जल्दी हो जाती है। कुम्भ लग्न के जातकों का स्वभाव कुछ सनकी मिलता है। किन्तु इनकी अतीन्द्रीय क्षमता प्रायः बढ़ी हुई होती है। समाज के लिए इनको ठीक-ठीक समझना कठिन होता
है। ये प्रायः जीवन के लक्ष्यों को बदलते रहते भी देखे गए हैं। तथापि दूसरों का धन, सलाह व सम्बन्धों द्वारा सहयोग करने वाले होते हैं।
विशेष (रोग) – कुम्भ लग्न हो, चन्द्रमा निर्बल होकर शनि के साथ आठवें घर में हो तो शत्रुकृत अभिचार या प्रेतबाधा से जातक को पीड़ा होती है।
कुम्भ लग्न व लग्नेश (शनि) दोनों पापग्रहों के बीच हों, सातवें घर में भी पापग्रह हों और सूर्य निर्बल हो तो जातक जीवन से निराश होकर आत्महत्या करता है।
कुम्भ लग्न हो तथा लग्न या द्वादश भाव में शनि, सूर्य, राहू व मंगल के साथ हो तो जातक सदैव ही रोगी रहता है। अथवा लग्न में पापग्रह हों और लग्नेश है निर्बल हो तो भी जातक रोगग्रस्त रहता कुंभ लग्न हो, बुध, शुक्र व शनि की युति दुःस्थानों में हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना में होती है।
कुम्भ लग्न में षष्ठेश (चन्द्र) पापग्रहों से दृष्ट हो तो जातक नेत्रों से जलस्राव के कारण अन्धा हो सकता है (सूर्य, द्वितीय व द्वादश भाव भी विचारें) ।
कुम्भ लग्न हो, चौथे भाव में पापग्रह हों, चतुर्थेश (शुक्र) पापग्रहों के मध्य हो तो जातक हृदय रोगी होता है। अथवा चतुर्थेश (शुक्र) अष्टमेश (बुध) के साथ अष्टमस्थ हो तो भी जातक हृदय रोगी होता है।
→ कुम्भ लग्न, दसवें भाव में सूर्य दो पापग्रहों के मध्य हो तो जातक को हार्ट अटैक होता है। अथवा चौथे भाव में राहू अन्य पापग्रहों से दृष्ट हो तो भी जातक को हार्ट अटैक होता है।
कुम्भ लग्न, चतुर्थेश शुक्र नीच का हो (कन्या राशि में अर्थात् कुम्भ लग्न के आठवें भाव में), निर्बल या अस्त हो तो भी जातक हृदय रोगी होता है।
अतिविशेष-शनि पांचवें या नौवें घर का स्वामी हो अथवा लग्नेश हो अथवा 3, 6, 11 भावों में से किसी का स्वामी होकर 5,9,3,6,11 भावों में से किसी भाव में बैठा हो तथा मित्र ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक को धन प्रदान करने वाला तथा धनवृद्धि कारक होता है (भले ही लग्न कोई भी हो) । ऐसे जातक को
शनि की महादशा/अन्तर्दशा/ढैया/साढ़ेसा
विशेष-मकर या कुम्भ लग्न वालों को (जिनका लग्नेश शनि हो) सूर्य को जल नहीं चढ़ाना चाहिए (अथवा शनि जिन्हें योगकारक व धनकारक हो उन्हें भी सूर्य को जल चढ़ाना लाभकारी नहीं रहता)। क्योंकि सूर्य एवं शनि में प्रबल है। अतः सूर्य को प्रसन्न करने का प्रयास शनि को रुष्ट करने का कारण बन जाता है। ऐसा मेरे सुयोग्य आचार्य श्री अरुण कुमार गुलाटी का मत है जो तर्कसंगत
एवं उचित मत है।
लग्न - मीन
मीन लग्न (लग्नेश गुरु )
जन्मकुण्डली के प्रथम भाव में जब मीन राशि हो तो जातक का लग्न मीन होता है। मीन राशि का स्वामी गुरु ही मीन लग्न का लग्नेश होता है। यह अन्तिम(बारहवीं) राशि है। ठीक वैसे ही जैसे मेष आरम्भिक (प्रथम) लग्न है। मीन लग्न के जातकों के विवेचन करने के लिए हमें लग्न के स्वामी गुरु के गुण
(विशेषताएं) तथा मीन राशि के प्रतीक चिह्न ‘मछली’ की विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए। इस आधार पर यह स्थूल निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि मीन लग्न के जातक नदी/समुद्र के तटों को पसंद करने वाले, जल से लगाव रखने वाले, रिजर्व (संकुचित) रहने वाले, अशांत/बेचैन तबियत के (अस्थिर स्वभाव वाले), औसत कद-काठी के, फेयर डीलिंग करने वाले (न्यायपूर्ण/स्पष्ट व्यवहार वाले), महत्वाकांक्षी, धर्मभीरू, आस्तिक, उच्च कोटि के धार्मिक तथा
इतिहास के शौकीन होते हैं किन्तु इनमें आत्मविश्वास का प्रायः अभाव रहता है।
मीन लग्न के जातक कभी-कभी औसत से कम कद वाले भी देखे गए हैं। किन्तु कद कम हो या औसत इनकी शरीर रचना इस प्रकार की होती है कि शरीर का ऊपर का हिस्सा भारी व निचला हिस्सा कमजोर रहता है। ये तगड़े व मजबूत
किस्म के भी हो सकते हैं और ढीले-ढाले मोटू किस्म के भी हो सकते हैं परन्तु जैसाकि बताया-मछली की पूंछ की भांति इनके शरीर का निचला हिस्सा ऊपर के हिस्से की अपेक्षा कमजोर नजर आता है। इनके नेत्र गोल हो सकते हैं। प्राय: बड़े,गोलाईयुक्त तथा बाहर को उभरे हुए होते हैं। ये स्थिर विचारों के नहीं होते,परिवर्तनशील स्वभाव के होते हैं। ये नम्र स्वभाव के, ईमानदार व दयालु होते हैं
और प्रायः डरपोक किस्म के होते हैं।
प्रतिशोधात्मक भावना मीन लग्न के जातकों में न के बराबर होती है। गुरु लग्नेश होने से ये लोग क्षमाशील व सज्जन, धर्मात्मा होते हैं। शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान तथा कला में इनकी रुचि होती है। लग्न पर शुभ प्रभाव हो तो ये उच्च कोटि के
सन्त अथवा दार्शनिक भी हो सकते हैं। क्योंकि तब अध्यात्म में इनकी रुचि तथा क्षमता और भी गहन हो जाती है। लग्न पर अशुभ प्रभाव हो तो तपेदिक, श्वास व पैरों की तकलीफ, गुदा व गुप्तांग के रोग इन्हें सम्भावित रहते हैं। वैसे मीन लग्न
वालों को यकृत, पीलिया, नितम्बों आदि से सम्बन्धित रोग एवं मेदवृद्धि की पूर्ण सम्भावना होती ही है। कन्या, कर्क व वृश्चिक लग्न के जातकों से इनकी मित्रता शुभ फलदायी होती है। ये लोग सिनेमा, टी.वी., अभिनय, संगीत, डॉक्टरी, आयात-शुभ नर्यात, समुद्र/जल सम्बन्धी कार्यों (तरल पदार्थों का विक्रय, बन्दरगाह/जल सेना आदि) में विशेष सफल होते हैं।
मीन लग्न में गुरु यदि लग्न में ही हो तो जातक अति विद्वान, प्रतापी, प्रसिद्ध तथा ब्राह्मणत्व के गुणों से सम्पन्न होता है। चतुर्थ भाव में गुरु हो तो माता का धन,वाहन का सुख तथा भूमि में गड़े धन का लाभ दिलाता है। पांचवें घर में विद्या लाभ
कराता है, पुत्र भी विद्वान होते हैं किन्तु अल्प होते हैं। आठवें घर में गुरु हो तो तीर्थ स्थान या धर्म सम्बन्धी कार्य में जातक की मृत्यु होती है। ग्यारहवें घर का गुरु धन,
विद्या और यश तीनों में वृद्धि करता है। बारहवें घर में गुरु हो तो जातक दानपुण्य करने वाला तथा धर्म सम्बन्धी कार्यों में धन का अधिक व्यय करने वाला होता है।
यदि सातवें घर में गुरु हो तो ऐसे जातक की पत्नी भी बहुत विदूषी अथवा साध्वी(नियम/संयम तथा पूजा/उपवास आदि के साथ रहने वाली) होती. मीन लग्न के जातक पात्र/सुपात्र का ध्यान रखे बिना भी उपकार/दान/आर्थिक सहायता करते हुए देखे जाते हैं। वे बहुत अधिक संवदेनशील होते हैं। मीन लग्न के जातक कल्पनाशील होते हैं। प्रायः ये यथार्थ से दूर आदर्शवादिता में जीते हैं और दिमाग की बजाय दिल से फैसले करते हैं। किन्तु अपना भ्रम टूटने, स्वप्न,बिखरने या मानसिक चोट पहुंचने के सदमे से बहुत अधिक दुखी होते हैं। कष्ट को
सहने का माद्दा इनमें कम ही रहता है। बहुत से मीन लग्न के जातक इस प्रकार की स्थितियों में नशे का सहारा लेते हुए भी देखे जा सकते हैं। मीन लग्न के जातक औरों को धोखा नहीं देते। इनमें अध्यात्म में प्रगति करने की सम्भावना अति तीव्र
होती है। संतोषी प्रवृत्ति के होते हैं तो भी इनका वैवाहिक जीवन सुखपूर्ण नहीं होता।मेरे अपने अनुभव के अनुसार मीन लग्न के जातकों को कन्याएं अधिक पैदा.होती हैं। ये लोग अपने मित्र, सम्बन्धी/प्रिय रिश्तेदारों की आवश्यकता से अधिक प्रशंसा करके उन्हें महिमामंडित करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं। दुनिया को भले ही ये धोखा न देते हों, किन्तु स्वयं को धोखे में जरूर रखते हैं। क्योंकि वास्तविकता से नजर चुराकर कल्पना में ही रहना पसंद करते हैं। प्रायः ये दृढ़ इरादों वाले भी
नहीं होते। लेकिन विपन्नता की स्थिति में घबराते भी नहीं। इनकी प्रबल आस्था इनको ऐसे अवसरों पर बल प्रदान करती है। जो जातक स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़ देते हैं वे अक्सर सफल होते देखे गए हैं। जबकि किसी कारण से महत्त्वाकांक्षी
या लालची होकर जो प्रयास करने वाले जातक (मीन लग्न के) मैंने देखे हैं वो असफल होते देखे हैं। मीन लग्न के जातकों की सहनशीलता विशेष होती है। मैंने कभी किसी मीन लग्न के जातक को झुंझलाते हुए नहीं देखा है। जमीन-जायदाद
के मामले मीन लग्न के जातकों के लिए दिक्कतें पैदा करने वाले ही होते हैं। या तो वे इन कार्यों में सफल नहीं होते। या ऐसे परिणाम निकलते हैं जिससे उन्हें यह
सोचना पड़ता है कि यह काम न करते तो ही अच्छा होता।
विशेष (रोग) – मीन लग्न हो, अष्टमस्थ शनि निर्बल चंद्र के साथ हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है या प्रेत बाधा की पीड़ा झेलनी पड़ती है (अकेला
• भी अष्टमस्थ हो तो जातक बाल्यावस्था में तो रुग्ण रहता ही है) ।
>> मीन लग्न हो, गुरु व लग्न दोनों पापग्रहों के बीच हों, सूर्य निर्बल हो और सातवें भाव में भी पापग्रह हों तो जातक आत्महत्या के लिए विवश हो जाता है।
>> मीन लग्न हो, दूसरे, ग्यारहवें या बारहवें भाव में शनि, गुरु, राहू व मंगल की युति हो जाए तो जातक के जीवन में आजीवन कोई न कोई रोग लगा रहता है।
>> मीन लग्न, सातवें घर में चन्द्र, मंगल तथा राहू की युति हो तथा शुभ ग्रहों की वहां दृष्टि न हो तो जातक एक वर्ष में मृत्यु को प्राप्त होता है या मृत्युतुल्य कष्ट भोगता है। (ऐसी स्थिति में जातक को अनिष्ट निवारक सिद्ध यंत्र से लाभ होता है ।)
>>;मीन लग्न हो, शनि सप्तमस्थ, गुरु, शुक्र व राहू बारहवें घर में हों तथा कुण्डली में कोई शुभ योग न हो तो भी जातक की एक वर्ष की आयु में मृत्यु|होती है।
>> मीन लग्न हो, क्षीण चन्द्र लग्नस्थ हो तथा पापदृष्ट हो तो भी जातक रुग्ण रहता है। मीन लग्न में यदि दुःस्थानों में बुध, गुरु, शुक्र की युति एकसाथ हो तो जातक की मृत्यु वाहन दुर्घटना के कारण होती है।-
>> मीन लग्न हो, षष्ठेश (सूर्य) लग्नस्थ तथा पापदृष्ट हो तो नेत्रों से जलस्राव के कारण जातक अंधा हो सकता है (दूसरा तथा बारहवां घर भी विचारें) ।
>> मीन लग्न हो, वृश्चिक का सूर्य दो पापग्रहों के बीच हो तो तीव्र हार्ट अटैक। अथवा चौथा राहू, अन्य पापग्रहों से दृष्ट तथा गुरु निर्बल हो तो भी हार्ट अटैक होता है। अथवा चौथे में पापग्रह तथा चतुर्थेश (बुध) पापग्रहों के बीच हो
तो हृदय रोग अथवा चतुर्थेश बुध कर्क राशि में निर्बल/अस्त या अष्टमस्थ हो तो भी जातक को हृदय रोग होता है।